जुड़वा बच्चों के पुतले बना कर उन्हें जिंदा बच्चों की तरह पालते हैं लोग
फ्रांस के फोटोग्राफर एरिक लैफोर्ज को फॉन जनजाति की जीवनशैली पर फोटो डॉक्यूमेंट तैयार करने के दौरान इस प्रथा का पता चला। इस आदिवासी समुदाय का मानना है कि ऐसा नहीं करने से उनपर आफत का पहाड़ टूट पड़ेगा। बेनिन की ही तरह टोगो और घाना जैसे देशों के कुछ इलाकों में प्रचलित इस प्रथा को वूडू कहा जाता है। इस प्रथा का पालन बच्चों के मरने के सदमे से खुद को उबारने के लिए तो किया ही जाता है साथ ही बताते हैं कि जनजाति के लोगों का मानना है कि पुतले में बच्चे की आत्मा निवास करती है और उनके लालन-पालन के आधार पर वे परिवार की अच्छी या बुरी आत्माओं से रक्षा करते हैं। अब आप सोच रहे होंगे वो ऐसा करते कैसे हैं।

बच्चों के नाम पर गुड़ियां बना कर किया जाता है लालन पालन
तो इस के लिए फॉन आदिवासी बच्चों के नाम से गुड़यां बनाते हैं और विश्वास करते हैं कि इस गुड़या में है मृत बच्चों की आत्मा। गुड़ियों को पालने में सुलाने के अलावा उसे प्रतिदिन स्नान कर खिलाया भी जाता है। परिवार को अहित से बचाने के लिए उसे नाराज नहीं किया जाता है। इतना ही नहीं इन पुतलों को भाई-बहन के साथ पढ़ने के लिए रोजाना स्कूल भी भेजा जाता है। मां-बाप के घर पर नहीं होने की स्थिति में उनकी देखभाल के लिए शिशु सदन भी बनाए गए हैं, जिसकी जिम्मेदारी गांव के बुजुर्गों के पास होती है।

केवल जुड़वा बच्चों की मृत्यु के बाद बनते हैं पुतले
मरने वाले प्रत्येक बच्चों के पुतले नहीं बनाए जाते हैं। ऐसा केवल जुड़वां बच्चों के मरने पर ही किया जाता है। इन इलाकों में शिशु मृत्यु दर काफी ऊंची है। ऐसे में जुड़वां बच्चों में कभी एक तो कभी दोनों की अकाल मौत हो जाती है। बेनिन में जुड़वा बच्चों की पैदाइश की दर भी और जगहों से ज्यादा है यहां लगभग प्रत्येक 20 में से 1 जुड़वा होते हैं। एरिक ने बताया कि जुड़वां बच्चों के तीन महीनों तक जीवित रहने पर पूरा समुदाय उन्हें उपहार देते हैं।

Voodo child

होनयोगा के जुड़वां बच्चे
एरिक को बोपा गांव की निवासी होनयोगा के साथ एक दिन गुजारने का मौका मिला। चालीस वर्षीय होनयोगा के जुड़वां बच्चों की मौत हो गई थी। वह हर सुबह उनके पुतलों की जीवित बच्चों की तरह सेवा करती थी। उन्हें स्नान कराने से लेकर दूध तक पिलाती थी। होनयोगा पुतलों को सप्ताह में एक दिन पास के झील में नहलाने के लिए ले जाती हैं। उन्हें बुरी आत्माओं से दूर रखने के लिए ऐसा किया जाता है। नहलाने के बाद वह उन्हें कपड़े पहनाती हैं और इत्र छिड़कती हैं। स्नान कराने की सामग्री को झील में ही फेंक दिया जाता है, ताकि बुरी आत्मा घर तक न पहुंचे। पुतलों को दोपहर का खाना खिलाने के बाद वह नियमित तौर पर मंदिर जाती हैं। रात में होनयोगा खुद मैले-कुचैले बिस्तर पर सोती हैं, जबकि पुतलों को साफ बिछावन पर सुलाती हैं। उनके व्यस्त रहने पर उनके पति ये सब काम करते हैं। यह प्रथा अशिक्षित से लेकर शिक्षित तबकों में समान रूप से प्रचलित है।

डाक्टरों की अलग है राय
वैसे अपना अध्ययन पूरा करके एरिक वापस जाने के पहले इलाके स्थानीय डाक्टरों से भी मिले और उनकी राय वहां के लोगों के विश्वास से अलग थी। डाक्टर्स का कहना था कि इस इलाके में बच्चों की मृत्यु दर गंदगी और मच्छरों के प्रकोप से मलेरिया जैसी बीमारियों के हमले से भी होती है। और जुड़वा बच्चों में तो इम्युनिटी की भी कमी बाई जाती है।

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