- यूपी की कई प्रमुख नदियों को जोड़ने की योजना पाइपलाइन में

- राज्य सरकार भी नदियों की जोड़ने की योजना से सहमत

- शासन में फंसे क्लीयरेंस के मामले, योजनाएं अधर में लटकी

ashok.mishra@inext.co.in

LUCKNOW: सूबे में सूखे और बाढ़ को मात देने के लिए नदियों को आपस में जोड़ने की योजना पर सबकी निगाहें टिकी हैं। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेई की इस महत्वाकांक्षी योजना को अमली जामा पहनाने के रास्ते मे अभी कई रोड़े हैं। इसी वजह से यूपी की छह प्रमुख नदियों को जोड़ने की योजना अभी पाइपलाइन में है। राज्य सरकार इसके लिए पूरी तरह सहमत है लेकिन शासन क्लीयरेंस नहीं दे रहा है। नतीजतन नई दिल्ली में जल संसाधन मंत्रालय की कई बैठकें होने के बाद भी योजनाएं जमीन पर नहीं उतर सकी हैं।

बुंदेलखंड की बुझेगी प्यास

सूखे की मार झेल रहे बुंदेलखंड के सात जिले केन और बेतवा नदी के आपस में जुड़ने के बाद थोड़ी राहत पा सकेंगे। यह योजना मध्य प्रदेश और यूपी के बीच 2004 से प्रस्तावित है। मध्य प्रदेश के पन्ना से निकली केन नदी को झांसी में बेतवा से मिलाया जाना है। राष्ट्रीय जल विकास अभिकरण इसकी विस्तृत कार्ययोजना तैयार करने के साथ मॉनिटरिंग भी कर रहा है। प्रदेश सरकार ने भी माना है कि इससे बुंदेलखंड और आसपास के इलाके की नहरें सूखी नहीं रहेंगी। यह मामला अब शासन के पास है। फाइल मुख्य सचिव के कार्यालय भेजी जा चुकी है, जहां से अनुमति मिलने के बाद ही काम आगे बढेगा। वहीं केन-बेतवा फेज वन पूरा होने के बाद फेज टू शुरू होना है। फेज टू को लेकर यूपी की कुछ आपत्तियां हैं। माना जा रहा है कि अपर बेतवा बेसिन में मध्य प्रदेश की संरचनाओं का निर्माण होने के बाद इसका विपरीत प्रभाव यूपी की नहर प्रणालियों पर पड़ेगा। राज्य सरकार का तर्क है कि फेज वन की सफलता के बाद ही फेज टू के क्रियान्वयन की सहमति देना राज्य हित में होगा। अन्यथा बेतवा का पानी फेज टू की योजनाओं में इस्तेमाल किया जाने लगेगा और यूपी को केन नदी से पानी नहीं मिलेगा। राज्य सरकार ने फेज टू की डीपीआर पर भी कुछ आपत्तियां जाहिर की हैं, जिसका निराकरण होने के बाद ही परियोजना को अमली जामा पहनाया जा सकेगा।

गंगा और यमुना से भी जुड़ेंगी नदियां

केन-बेतवा लिंक के अलावा यूपी की कई अन्य नदियों को जोड़ने की परियोजनाएं भी सालों से पाइपलाइन में हैं। इनमें कोसी-घाघरा, गण्डक-गंगा, घाघरा-यमुना, शारदा-यमुना आदि परियोजनाएं शामिल हैं। विगत 29 अप्रैल को नई दिल्ली के विज्ञान भवन में नदियों की इंटरलिंकिंग को लेकर हुई उच्चस्तरीय बैठक में राज्य सरकार ने अभिकरण से इन परियोजनाओं के क्रियान्वयन के बारे में प्रभावी कार्यवाही करने का अनुरोध किया है। इन नदियों के आपस में जुड़ने के बाद पश्चिमी यूपी, मध्य यूपी और पूर्वाचल में पानी की समस्या काफी हद तक कम हो जाएगी। गर्मियों में सूख जाने वाली गंगा और यमुना की सहायक नदियों में साल भर पानी उपलब्ध होगा। मालूम हो कि वर्तमान प्रदेश के करीब 50 जिले प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से सूखे की चपेट में हैं। करीब नौ करोड़ की आबादी रोजाना पानी की समस्या से जूझ रही है। नदियों के आपस में जुड़ने से बाढ़ और सूखे जैसी समस्याओं से निजात मिलेगी और सिंचाई सुविधाओं में इजाफा होगा। हालांकि, कुछ पर्यावरणविदों का मानना है कि इससे कोई फायदा नहीं होगा।

टाइगर रिजर्व को भी नहीं दी जमीन

केन-बेतवा लिंक परियोजना की तहत ही पन्ना टाइगर रिजर्व के लिए यूपी के रानीपुर वाइल्ड लाइफ सेंचुरी और महावीर स्वामी वाइल्ड लाइफ सेंचुरी की 1300 हेक्टेयर भूमि दी जानी है। इसके लिए राज्य सरकार को सैद्धांतिक सहमति देनी है। वन विभाग ने इसमें भी पेंच फंसा दिया है। इस प्रकरण की फाइल कई दिनों से वन विभाग में लटकी पड़ी है। मामला प्रमुख सचिव वन को संदर्भित भी किया जा चुका है। वन विभाग द्वारा फोरेंस्ट लैंड डायवर्जन क्लीयरेंस देने के बाद ही इस भूमि को पन्ना टाइगर रिजर्व को हस्तांतरित किया जा सकेगा।

साल 2001 में लखनऊ से दिल्ली गये 74 लोगों के प्रतिनिधिमंडल ने तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेई को नदियों की इंटरलिंकिंग का प्रस्ताव सौंपा था। इसमें गोमती को सरयू से लिंक अप करने का प्रस्ताव भी था। उन्होंने यह योजना शुरू करने में दिलचस्पी दिखाई। केन-बेतवा परियोजना उनकी ही देन है। नदियों को आपस में जोड़ने से सूखा और बाढ़ से राहत मिलेगी। जल स्तर बढ़ने पर पाइप या नहर के जरिए अन्य इलाकों में पानी भेजा जा सकेगा। ये काफी प्रभावी कदम साबित हो सकता है।

रिद्धि किशोर गौड़

पर्यावरणविद्

नदियों को आपस में जोड़ना स्थायी समाधान नहीं है। इससे भविष्य में देशों व राज्यों के बीच विवाद बढ़ेंगे। यह प्रकृति के खिलाफ भी है। जरूरत शहरों में रेनवाटर हार्वेस्टिंग को सख्ती से लागू करने तथा गांवों में तालाबों की स्थिति सुधारने की है। नदियों को जोड़ने की योजना 2001 में बनी थी, अब इसकी लागत तीन गुना से ज्यादा हो चुकी है। इतनी ज्यादा लागत वहन करने की क्षमता केन्द्र सरकार की भी नहीं है।

रमन त्यागी

पर्यावरणविद्