आंग सान सू ची का भारत से एक विशेष नाता रहा है, उन्होंने भारत में अपने जीवन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बिताया है। स्कूल और कॉलेज की उनकी पढ़ाई भारत में ही हुई है। सू ची सबसे पहले भारत पहुँचीं 1960 में, जब उनकी माँ डाओ खिन ची को भारत में बर्मा का राजदूत बनाकर भेजा गया था।

तब सू ची 15 साल की थीं। उनका जन्म 19 जून 1945 को रंगून में हुआ था। वे अपने माता-पिता की तीसरी और सबसे छोटी संतान हैं। उनके दो और भाई थे। बड़े भाई की बहुत कम उम्र में तैरते समय एक दुर्घटना में मौत हो गई। दूसरा भाई बाद में अमरीका गया और वहीं बस गया।

Suu Kyi family

भारत में सू ची ने पहले दिल्ली के कॉन्वेन्ट ऑफ़ जीसस एंड मेरी स्कूल में पढ़ाई की। स्कूली शिक्षा पूरी करने के बाद कॉलेज की पढ़ाई के लिए वे दिल्ली के लेडी श्रीराम कॉलेज गईं। लेडी श्रीराम कॉलेज ने अपनी वेबसाइट पर आंग सान सू ची के साथ कॉलेज के संबंध पर गर्व प्रकट करते हुए लिखा है – “आंग सान सू ची, जो अपने सहपाठियों के बीच “सू” नाम से जानी जाती थीं, वे कॉलेज के 1964 सत्र की राजनीति शास्त्र की छात्रा थीं।

"राजनीति की जटिलताओं के बारे में उनकी समझ, जो क्लास में हुई पढ़ाई, और साथ-साथ भारतीय लोकतंत्र के गुणों की पहचान से हुई, उसने सू ची को वो राजनेता बनाने में योगदान दिया जो कि वो आगे चलकर बनीं."

लेडी श्रीराम कॉलेज ने वेबसाइट पर आंग सान सू ची के पति डॉक्टर माइकेल एरिस की एक उक्ति को उद्धृत किया है जिसमें वो कहते हैं – "सू ची सदा दिल्ली और ऑक्सफोर्ड में हुई अपनी पढ़ाई को देश सेवा की अपनी तैयारी का एक दौर समझती हैं."

शिमला

सू ची दिल्ली में पढ़ाई पूरी करने बाद आगे की पढ़ाई के लिए ऑक्सफ़ोर्ड विश्वविद्यालय चली गई थीं जहाँ उन्होंने सेंट ह्यूज़ेस कॉलेज से दर्शनशास्त्र, राजनीतिशास्त्र और अर्थशास्त्र की पढ़ाई की।

ब्रिटेन में सू ची के स्थानीय अभिभावक थे लॉर्ड गोर बूथ जो कि बर्मा में ब्रिटेन के राजदूत और भारत में ब्रिटेन के उच्चायुक्त रह चुके थे। उन्हीं के घर सू ची की मुलाकात अपने पति माइकेल ऐरिस से हुई जो तब तिब्बती सभ्यता के छात्र थे।

सू ची ब्रिटेन में 1985 तक रहीं। वहीं उनके दो बेटे हुए। फिर 1985 में वे एक साल और पढ़ाई के लिए जापान की क्योटो युनिवर्सिटी चली गईं। इसके बाद वो एक बार फिर भारत लौटीं। 1987 में वे एक फेलोशिप पर शिमला स्थित – इंडियन इंस्टीच्यूट ऑफ़ ऐडवांस्ट स्टडीज़ गईं। इसके बाद वो फिर ब्रिटेन गईं और वहाँ लंदन स्थित स्कल ऑफ़ ओरिएंटल एंड ऐफ़्रीकन स्टडीज़ में और पढ़ाई के लिए दाखिला लिया।

अगले साल 1988 में माँ को लकवा मारने की खबर सुनते ही वो रंगून आ गईं और उसके बाद से उनका जीवन बर्मा में लोकतंत्र की स्थापना के लिए एक संघर्ष को समर्पित हो गया। सू ची 1988 के बाद से देश से बाहर नहीं गई हैं। ना तो 1991 में नोबेल शांति पुरस्कार ग्रहण करने के लिए, ना ही 1999 में लंदन में कैंसर का शिकार हो जानेवाले अपने पति के अंतिम दर्शन के लिए। अब बर्मा की राजनीतिक स्थिति में आ रहे बदलाव के बाद भारत में उनके स्वागत के लिए काफी उत्सुकता है।

उत्सुक सू ची भी हैं। उन्होंने इस साल अप्रैल में बर्मा में हुए उपचुनाव में जीत के बाद कहा भी था – “मैं जल्दी भारत जाना चाहती हूँ, मैं वहाँ अपने दोस्तों से मिलना चाहती हूँ, मैं अपने कॉलेज जाना चाहती हूँ.”

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