चेतना की उच्चतर अवस्था प्राप्त व्यक्ति से यह अपेक्षा होती है कि वह सबकुछ जानता है, लेकिन जब मन और चेतना 'सबकुछ’ जानने की योग्यता रखते हैं, तो क्या यह आवश्यक है कि वास्तव में उन्हें 'सबकुछ’ जानने की आवश्यकता है। 'सबकुछ जानने’ का सरल तात्पर्य यह है कि जो कुछ तुम जानते हो उसके सार तत्व से सजग रहो। इस स्थिति में ज्ञान और अज्ञान साथ-साथ रहते हैं और एक-दूसरे के पूरक रहते हैं।

परिणाम पता हो तो खेल आनंददायक नहीं होगा

उदाहरण के लिए, कोई भी खेल खेलते समय परिणाम को पहले से न जानना खेल को आनंददायक और यथार्थ बनाता है। यदि, खेलते समय ही परिणाम मालूम हो गया तो खिलाड़ी और खेल दोनों का आवेग समाप्त हो जाएगा। यदि जीवन में सभी कुछ सहजता से और योजनाबद्ध तरीके से होता है तो जीवन आनंददायक नहीं रह जाएगा।

उतार-चढ़ाव जीवन को अधिक रुचिकर बनाती है

किसी भी कहानी का आनंद इसके संशय में होता है। और इस जीवन का सबसे बड़ा व्यापार क्या है? केवल 60 या 80 वर्ष? यह कुछ नहीं है। तुम इस तरह से कितनी बार इस संसार में आते रहे हो, बहुत से शरीरों में रहे हो, बहुत से कार्य तुमने किए हैं। एक जीवन नगण्य है। जब तुम्हें इस बात का अनुभव होगा तो यहां वहां छोटी बातें तुमको व्यथित नहीं करेंगी। जीवन का प्रत्येक उतार-चढ़ाव जीवन के इस खेल को अधिक रुचिकर बनाती है।

चेतना सब कुछ जानती है

जब तुम किसी विशेष क्षण की चेतना से अपने को अंगीकृत करते हो तो तुम्हें प्रत्येक क्षण में इस ब्रह्माण्ड में अगणित क्रियाकलापों के घटित होने का बोध होता है- लोग जाग रहे हैं, सो रहे हैं, सोने की तैयारी कर रहे हैं, कार्य कर रहे हैं। इस अनंत सृष्टि में उस क्षण में दसों अरब घटनाएं घटित हो रही हैं और फिर भी चेतना सभी कुछ जानती है। यह ज्ञान प्रत्येक व्यक्ति के अंदर है। तुम इन संपूर्ण घटनाओं का एक अंश हो।

मृदुल है चेतना की उच्च अवस्था

जब तुम चेतना की उच्चतर अवस्था में विकसित होते हो तो तुम्हें यह ज्ञात होता है, तुम यह पाते हो कि विभिन्न परिस्थितियां और झंझावात तुम्हें असंतुलित नहीं कर पाते हैं। तुम दृढ़ और सुंदर हो जाते हो- एक मृदुल, सुकोमल और सुंदर पुष्प की तरह जीवन के विभिन्न मूल्यों और परिस्थितियों के अनुसार अपने जीवन का वहन करने के योग्य हो जाते हो।

— श्री श्री रविशंकर

 

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