क़ानून मंत्री कपिल सिब्बल ने शुक्रवार को ट्वीट कर कहा, " भारतीय दंड संहिता की धारा 377 पर केंद्र सरकार ने शुक्रवार को सुप्रीम कोर्ट में पुनर्विचार याचिका दायर की है. हम उम्मीद करते हैं कि व्यक्तिगत पसंद का अधिकार सुरक्षित रहेगा."

इससे पहले गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे ने कहा था कि केंद्र सरकार धारा 377 के ख़िलाफ़ पुनर्विचार याचिका दायर करेगी.

उल्लेखनीय है कि 11 दिसंबर को सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली हाई कोर्ट के फ़ैसले को 'क़ानूनी तौर पर ग़लत' बताते हुए वयस्क समलैंगिकों के बीच सहमति से बनाए गए यौन संबंध को ग़ैर-क़ानूनी क़रार दिया था.

अपने फ़ैसले में धारा 377 को वैध क़रार देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि इसमें किसी भी बदलाव के लिए अब केन्द्र सरकार को इस पर विचार करना होगा.

सुप्रीम कोर्ट के इस फ़ैसला का व्यापक विरोध हुआ था.

फ़ैसला

दिल्ली हाई कोर्ट ने तीन जुलाई 2009 को समलैंगिक संबंधों पर अपने फ़ैसले में कहा था कि भारतीय दंड संहिता की धारा 377 के उस प्रावधान में, जिसमें समलैंगिकों के बीच सेक्स को अपराध क़रार दिया गया है, उससे मूलभूत मानवाधिकारों का उल्लंघन होता है.

दिल्ली हाई कोर्ट के इस फ़ैसले से वयस्कों के बीच समलैंगिक संबंधों को क़ानूनी मान्यता मिल गई थी. देश भर के धार्मिक संगठनों ने इस फ़ैसले का विरोध किया था.

ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने अन्य धार्मिक संगठनों के सहयोग से दिल्ली हाई कोर्ट के इस फ़ैसले के ख़िलाफ़ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की थी.

इसी याचिका पर फ़ैसला देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने धारा 377 को फिर से वैध क़रार दे दिया था.

समलैंगिकताः धारा 377 पर पुनर्विचार याचिका

सुप्रीम कोर्ट ने अपने फ़ैसले में यह भी कहा था कि केंद्र सरकार चाहे तो इस मामले पर नया क़ानून भी बना सकती है.

मौलिक अधिकार का उल्लंघन

वर्ष 2001 में एड्स संक्रमण से जुड़े मुद्दों पर काम कर रही संस्था नाज़ फाउंडेशन ने धारा 377 के उस प्रावधान को हटाने की मांग की थी जिसमें समलैंगिकों के बीच सेक्स को आपराधिक माना गया है.

नाज़ फाउंडेशन ने 148 साल पुराने इस क़ानून के ख़िलाफ़ याचिका दायर की थी. इस क़ानून के तहत समलैंगिक संबंध बनाने पर दस साल तक की क़ैद की सज़ा हो सकती है.

बाद में समलैंगिक अधिकारों के लिए लड़ रहे कई संगठन साथ आए और 'वॉयसेस अगेन्स्ट 377' नाम का समूह बनाया जो इस मामले में याचिकाकर्ता भी बना.

साल 2009 में अपने फ़ैसले में दिल्ली हाई कोर्ट ने कहा था कि धारा 377 नागरिकों के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है.

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