षष्ठी देवी को ही स्थानीय भाषा में छठी मैय्या कहा गया है। षष्ठी देवी को ‘ब्रह्मा की मानसपुत्री’ भी कहा गया है, जो नि:संतानों को संतान देती हैं और सभी बालकों की रक्षा करती हैं। छठ पूजा का 4 दिवसीय उत्सव रविवार को नहाय खाय से शुरू हो गया।

सोमवार 12 नवंबर को लोहंडा और खरना है। दूसरे दिन व्रतधारी पूरे दिन व्रत रखते हैं और शाम को भोजन करते हैं। शाम के भोजन को ही खरना कहा जाता है।

खरना के प्रसाद ग्रहण करने के लिए व्रतधारी अपने सगे संबंधियों को खास तौर पर बुलाते हैं। प्रसाद के तौर पर गन्ने के रस से बने मीठे चावल के साथ दूध, चावल का पिट्ठा और रोटी होता है। इसमें नमक या चीनी का इस्तेमाल वर्जित है।

इन दो चीजों के बिना प्रसाद है अधूरा
व्रत के तीसरे दिन यानी मंगलवार 13 नवंबर को छठी का प्रसाद बनता है। इसमें ठेकुआ, चावल के लड्डू खास तौर पर बनाए जाते हैं। इसके अलावा चढ़ावा के रूप में लाया गया सांचा और फल भी छठ प्रसाद के रूप में शामिल होता है।

शाम के अर्घ्य का समय
प्रसाद बनाने के बाद शाम को बांस की टोकरी में अर्घ्य का सूप सजाया जाता है। शाम को डूबते सूर्य को अर्घ्य देने के लिए व्रती के साथ उसके परिजन और पड़ोस के लोग तालाब या नदी के घाट पर जाते हैं।

वहां पर सभी व्रतधारी सूर्य को जल और दूध से अर्घ्य देते हैं। इसके बाद छठी मैय्या की सजाए गए सूप से पूजा करते हैं। इस वर्ष शाम को 5.15 बजे अर्घ्य दिया जाएगा।

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