"सोशल मीडिया पर झूठी जानकारी पोस्ट करना इंफॉर्मेशन टेक्नोलॉजी (आईटी) एक्ट के तहत अपराध है। अगर आप फ़ेसबुक पोस्ट में फर्जी जानकारी देते हैं या अपनी पहचान ग़लत दिखाते हैं, तो ये धोखाधड़ी का भी मामला बनता है।"

पवन दुग्गल के अनुसार, "सोशल मीडिया पर झूठी ख़बरों को रोकने के कारगर तरीके मौजूद नहीं हैं।"

सोशल मीडिया पर फर्जी पोस्ट के तीन पक्ष होते हैं- एक पोस्ट करने वाला, दूसरा सर्विस प्रोवाइडर और तीसरा पोस्ट को लाइक या शेयर करने वाले।

 

 

सोशल मीडिया पर झूठी ख़बरों की महामारी?
साइबर सुरक्षा विशेषज्ञ विजय मुखी कहते हैं, "लोग 'झूठी' या 'परेशान' करने वाली जानकारी पोस्ट करते रहते हैं। उन्हें पता है कि उनके ख़िलाफ़ कंपनी कार्रवाई नहीं करेगी।"

वो कहते हैं, "ऐसे मामलों में कंपनियां भी पुलिस की कम ही मदद करती हैं और ये पूरी तरह से एक व्यावसायिक फ़ैसला होता है।"

वो कहते हैं कि सोशल मीडिया पर किए गए पोस्ट को लेकर गिरफ्तारियां तो हुई हैं, लेकिन कई मामले राजनीति से प्रेरित होते हैं।

उन्होंने कहा, "आज अगर आप प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ख़िलाफ़ फ़ेसबुक पर कुछ लिखेंगे, तो आप गिरफ्तार हो सकते हैं, लेकिन अगर आप राहुल गांधी के ख़िलाफ़ कुछ लिखें, तो शायद कुछ न हो।"

 

ऐथिकल हैकर राहुल कुमार सिंह के अनुसार अगर सरकार फ़ेसबुक के किसी यूज़र के बारे में जानकारी चाहती है, तो कंपनी को जानकारी देनी होगी।

वो कहते है, "अगर सरकार वाकई में जानकारी चाहती है, तो काम मुश्किल नहीं। लेकिन किसी यूज़र की जानकारी दूसरों को देकर कंपनी उनका भरोसा नहीं खोना चाहती। कंपनी को लगता है कि ये एक ख़राब मार्केटिंग स्ट्रेटजी है।"

राहुल कुमार मानते हैं कि सोशल मीडिया पर मौजूद किसी व्यक्ति की पूरी प्रोफाइल निकालना सस्ता काम नहीं। वो हंसते हुए कहते हैं, "ये तो कुछ ऐसा है- जितना का बऊआ ना, उतना का झुनझुना।"

अब इस मामले को ही देखें। उत्तर प्रदेश एसआईटी (विशेष जांच दल) ने 2013 मुजफ्फरनगर दंगों से जुड़े एक फर्जी और भड़काऊ वीडियो की जानकारी फ़ेसबुक से मांगी थी।

 

इस वीडियो को कई लोगों ने लाइक और शेयर किया था। लेकिन मीडिया में आई रिपोर्टों के मुताबिक फ़ेसुबक ने ये कहते हुए जानकारी देने से मना कर दिया कि उनके पास सिर्फ एक ही साल का रिकॉर्ड था।

राहुल कुमार पूछते हैं, "मेरा अकाउंट 10 साल पुराना है। अगर मैं चाहूं तो अपने अकाउंट के बारे में सारी जानकारी डाउनलोड कर सकता हूं। आखिरकार फ़ेसबुक ने एसआईटी से मात्र एक साल का रिकॉर्ड होने की बात क्यों कही, ये बात अजीब सी लगती है।"

वो कहते हैं, "कंपनी अपने यूज़र्स के सारे रिकॉर्ड रखती है। इस मामले में फ़ेसबुक जानकारी देना नहीं चाहता, क्योंकि उसे यूज़र खोने का डर है, जिसका सीधा असर कंपनी के रेवेन्यू पर पड़ेगा।"

यहां यूरोप वर्सेज फ़ेसबुक मामले का जिक्र जरूरी है।

 

वर्ष 2015-16 में ऑस्ट्रिया के एक वकील मैक्स श्रेम्स ने फ़ेसबुक से कहा कि वो उन्हें उनके पोस्ट के बारे में सभी जानकारी मुहैया कराएं।

फ़ेसबुक ने उन्हें जवाब में 1,200 पन्नों का एक दस्तावेज सीडी-रॉम में सेव करके भेजा।

इस दस्तावेज में उनका फोन नंबर, उनके परिवार और दोस्तों के बारे में जानकारियां और डिलीट किए मैसेज भी थे।

ये दस्तावेज साबित करता है कि फ़ेसबुक अपने यूज़र्स की सभी जानकारियों का रिकॉर्ड रखती है।

 

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कानूनी पेंच

पवन दुग्गल बताते हैं कि भारत में झूठी जानकारी वाले पोस्ट के लिए सर्विस प्रोवाइडर को भी जिम्मेदार ठहराया जाता है।

लेकिन कंपनियां बिना कोर्ट के आदेश के इस मामले में कुछ करना नहीं चाहतीं।

वो बताते हैं, "कंपनियां हाल में आए सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले का इस्तेमाल बहाने के तौर पर करती हैं। वो किसी व्यक्ति की जानकारी देने से पहले कोर्ट का आदेश मांगती हैं।"

वर्ष 2012 में शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे की मौत के संबंध में पोस्ट लिखने और लाइक करने के मामले में ठाणे की दो लड़कियों को गिरफ्तार किया गया था।

ये गिरफ्तारियां आईटी ऐक्ट की धारा 66ए के तहत की गई थीं।

 

इस धारा के तहत सोशल मीडिया या इंटरनेट साइट पर पोस्ट करने के लिए पुलिस किसी व्यक्ति को गिरफ्तार कर सकती थी।

अदालत ने इस कानून को असंवैधानिक बताकर रद्द कर दिया।

अदालत का कहना था, "लोगों को जानने का अधिकार है और ये अधिकार आईटी एक्ट की इस धारा से प्रभावित हो रहा है।"

पवन दुग्गल बताते हैं, "समस्या सिर्फ सर्विस प्रोवाइडर ही नहीं हैं। सोशल मीडिया पर किसी व्यक्ति की पहचान पता करना भी एक बड़ी चुनौती है।"

वो कहते हैं, "फेक न्यूज़ को ख़त्म करना है, तो इस पर्दे को उतारना होगा। जितनी ज्यादा पारदर्शिता होगी, उतना ही इस पर लगाम लग सकेगी।"


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