एक छाता निर्माता अपना काम बड़े ही आनंद के साथ करता था। उसे अपने काम से बहुत लगाव था। काम के साथ-साथ वह ईश्वर का नाम जपता और अपने ग्राहकों के साथ आध्यात्मिक विषय पर चर्चा भी करता था। उसे ज्यादातर लोग पसंद करते थे। साधारण ढंग से जीने के लिए उसके पास पर्याप्त पैसे थे। एक दिन एक स्थानीय मकान मालिक ने उससे एक छाता खरीदा। छाते के सही मूल्य, गुणवत्ता और छाता निर्माता के व्यवहार से वह काफी खुश हुआ। मकान मालिक ने उसे पुरस्कार स्वरूप 99 सोने के सिक्के दिए। सोने के सिक्के दान में पाकर छाता निर्माता तो बहुत खुश हुआ, लेकिन अब उसका व्यवहार बदलने लगा था। उसका ध्यान अब इसी में लगा रहता कि वह सोने को सिक्के को किस तरह सुरक्षित रखे।

वह अक्सर सोचता कि चोर मेरे घर में सेंध लगाकर सिक्के चोरी कर लेंगे। वह पत्नी और बच्चों के प्रति भी अविश्वासी बन गया। इसके अलावा, वह अब यह प्रयास करने लगा कि अधिक से अधिक पैसे कमाकर 99 सिक्कों को बढ़ाकर 100 कर ले। इच्छा और स्वार्थ बढ़ने के कारण वह दुखी रहने लगा और उसे बेचैनी होने लगी। वह अपने ग्राहकों पर गुस्सा निकालने लगा। जल्द ही उसके ग्राहक घट गए और उसका मुनाफा कम हो गया। परिणाम यह हुआ कि जरूरत पड़ने पर उसे एक-एक करके अपने सोने के सिक्कों को बेचना पड़ा। आखिरकार, जब वे सारे सिक्के खत्म हो गए, तो उसके पास खुद और अपने परिवार की जरूरतों को पूरा करने के लिए भी कोई धन नहीं बचा।

अब वह छाता निर्माता, जो पहले शांतिपूर्ण और संतुष्ट जीवन जी रहा था, उसके पास असंतोष के अलावा कुछ नहीं बचा। इस कहानी का यह मतलब नहीं है कि धन पाप है या किसी को धन कमाने का प्रयास नहीं करना चाहिए। धन की मदद से अपनी जरूरतों को पूरा करने या कुछ बुनियादी साधनों का आनंद लेने में कुछ भी गलत नहीं है। हालांकि हमें इस बात के बीच भेद करना सीखना होगा कि हमारी आवश्यक आवश्यकता क्या है और विलासिता के संसाधन क्या हैं? हमें जीने के लिए कमाना चाहिए, न कि कमाने के लिए जीना।

धन क्या है?

सबसे पहले तो हम यह जानें कि धन क्या है? रुपये-पैसे तो भौतिक धन हैं, वहीं ज्ञान और आरोग्यता व्यक्ति का सच्चा धन है। यदि हमें सही ज्ञान होगा, तभी अपने धन का सही दिशा में प्रयोग भी कर पाएंगे। एक शिक्षित आदमी कई लोगों को शिक्षित कर विद्या धन बढ़ाता है। इसलिए यह कभी न भूलें कि विद्या के दान से विद्या बढ़ती है और धन के दान से धन। ज्यादातर धर्मग्रंथों में इस बात के उल्लेख मिलते हैं कि हम जो भी धन कमाते हैं, उसका 10वां भाग अवश्य सत्कार्यों पर खर्च करना चाहिए। इससे ईश्वर भी प्रसन्न होते हैं। तभी तो धर्मग्रंथों में भी कहा जाता है- स्वास्थ्य ही धन है। स्वस्थ रहने पर ही धन संचय और संचित धन का सदुपयोग किया जा सकता है। इसलिए धनतेरस के दिन न सिर्फ धन की देवी लक्ष्मी व संपत्ति के कोषाध्यक्ष कुबेर के साथ-साथ आरोग्य के देवता आचार्य धन्वंतरि की भी विशेष पूजा-अर्चना की जाती है।

रुतबा और धन क्षणिक होते हैं। इसके अलावा, अधर्म के माध्यम से प्राप्त किया गया धन संभवत: लंबे समय तक नहीं चल सकता है। कुछ लोग मानते हैं कि ज्ञान और धन कभी-भी एक साथ नहीं रह सकते। यह सच हो सकता है या नहीं भी हो सकता है, लेकिन यह निश्चित रूप से सच है कि अधर्म के माध्यम से प्राप्त किया गया धन और शांति एक साथ कभी-भी कायम नहीं रह सकते हैं। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि आराम और सुविधा की तलाश में हमें वैसे लोगों को कभी नहीं भूलना चाहिए, जिनके पास कुछ भी नहीं है। यदि हम ऐसे लोगों की मदद करते हैं, तो हमें काफी संतोष मिलता है। आप देखेंगे कि जब आप धन से दूसरों की मदद करते हैं तो आपको धनप्राप्ति के नए और सकारात्मक उपाय भी सूझते रहते हैं। हम में से कई लोग इस भ्रम में रहते हैं कि धन और रुतबा जीवन में सबसे बड़ी चीज हैं और उनके माध्यम से ही हमें खुशी और शांति मिलेगी। बेशक कई इच्छाएं धन के जरिए पूरी की जा सकती हैं, लेकिन हमें यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि कुछ इच्छाएं ऐसी भी होती हैं, जो धन से कभी पूरी नहीं हो सकती हैं। धन हमें एक सुंदर घर बनाने में मदद कर सकता है, लेकिन यह कभी भी एकता, प्रेम और खुशी का वातावरण नहीं बना सकता है।

धन से हम स्वास्थ्य नहीं खरीद सकते

धन हमें मित्र बनाने में मदद कर सकता है, लेकिन यह उन्हें नेकनीयत वाला नहीं बना सकता है। धन हमें वातानुकूलित शयन कक्ष प्रदान कर सकता है, लेकिन यह हमें शांतिपूर्ण नींद नहीं दे सकता है। धन से हम महंगे और स्वादिष्ट भोजन खरीद सकते हैं, लेकिन इससे हम स्वास्थ्य नहीं खरीद सकते हैं। धन हमें सशस्त्र अंगरक्षकों से लैस कर सकता है, लेकिन यह न तो हमारी उम्र बढ़ा सकता है और न ही हमें डर और असुरक्षा से मुक्त कर सकता है। यह झूठी धारणा है कि धन उन्हें खुशी प्रदान करेगा। बहुत से लोग जल्दबाजी में अपनी शांति, खुशी और सौहार्दपूर्ण पारिवारिक माहौल को खो देते हैं। यदि हम प्रतीकात्मक रूप में सभी आराम की वस्तुओं से मिले सुख को एक ट्रे में रखें और दूसरी ट्रे में हम नि:स्वार्थ सेवा से प्राप्त संतोष और त्याग से मिले सुख को रखें, तो दूसरी ट्रे का पलरा पहली ट्रे की अपेक्षा निश्चित रूप से अधिक झुका होगा। इसलिए धन के पीछे दौड़ने की बजाय हमें सच्चा सुख प्राप्त करने पर हमें ध्यान देना चाहिए। हमें धन के उपयोग के साथ ही इसकी सीमाओं को भी समझना चाहिए। धन आग की तरह है। इसका इस्तेमाल सृजन करने और नष्ट करने दोनों के लिए किया जा सकता है। इसका इस्तेमाल करने का विकल्प हमारे हाथों में है।

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