-महाराजा हर्षवर्धन के शासनकाल से मिलता है प्रयागराज की गहरेबाजी का एग्जांपल

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PRAYAGRAJ: सावन महीने का संगमनगरी में जितना धार्मिक महत्व है उतनी ही फेमस यहां की गहरेबाजी है। कई दशकों से गहरेबाजी के जुनून को देखने वाले प्रयाग के तीर्थ पुरोहित मधु चकहा इस बारे में विस्तार से जानकारी देते हैं। वह बताते हैं कि परंपरा और जुनून से जुड़ी गहरेबाजी का इतिहास राजा-महाराजाओं के दौर से चला आ रहा है। पुरोहित समाज की मानें तो गहरेबाजी की परंपरा महाराजा हर्षवर्धन के जमाने से चली आ रही है। तब वह खुद इसका आयोजन कराते थे और घोड़ों को मैदान में उतारा जाता था।

दक्षिणा में मिलता था घोड़ा

दारागंज में रहने वाले पुरोहित अभिषेक पांडेय बताते है कि यह परंपरा सदियों पुरानी है। पुराने जमाने में तीर्थ पुरोहित जब सावन के महीने में राजा-महाराजाओं को संगम स्नान कराकर शिव मंदिरों में भोले बाबा का दर्शन-पूजन कराते थे तो कई बार दक्षिणा के रूप में घोड़ा मिल जाता था। ऐसा उदाहरण अभिषेक पांडेय को उनके घर के बड़े-बुजुर्ग बताया करते थे। इस उदाहरण में राजा हर्षवर्धन का नाम लिया जाता था। पुरोहित इस दक्षिणा को भोले भंडारी का प्रसाद समझकर इनसे कोई काम नहीं लेते थे।

घोड़े से जाते थे जल चढ़ाने

इस प्राचीन परंपरा का महत्व ऐसा है कि सावन के महीने में मालवीय नगर, अहियापुर, कीडगंज व दारागंज जैसे एरिया में रहने वाले पुरोहित घोड़ा बग्घी यानि इक्का से संगम का जल शिवकुटी स्थित कोटेश्वर महादेव मंदिर में चढ़ाने जाते थे। प्रयाग गहरेबाजी संघ के अध्यक्ष राजीव भारद्वाज उर्फ बब्बन भइया बताते हैं कि शिवकुटी मंदिर में जल चढ़ाने के बाद मालिक खुद या कोचवान अपने-अपने घोड़े को सधी चाल से एक रफ्तार में दौड़ाते हुए वापसी करते थे।

मेडिकल कॉलेज परंपरा का गढ़

सावन के प्रत्येक सोमवार को करीब अस्सी साल से गहरेबाजी का गढ़ माना जाता है। यहां से लेकर सीएमपी डिग्री कॉलेज तक एक या दो नहीं बल्कि पांच-पांच राउंड तीर्थ पुरोहितों व मुस्लिम समाज के लोगों के द्वारा गहरेबाजी की जाती है। इस रूट पर ट्रैफिक का दबाव अत्यधिक बढ़ने की वजह से 2011 से लेकर 2015 तक इसका आयोजन पुराने यमुना ब्रिज से लेकर मिंटो पार्क के बीच किया गया था। लेकिन पिछले तीन साल से यह फिर से मेडिकल कॉलेज चौराहे से की जाने लगी है।

वर्जन

सावन माह में ऋषि काल से लेकर मुगल काल तक में गहरेबाजी की परंपरा निरंतर चल रही थी। महाराज हर्षवर्धन के शासनकाल में यह चरमोत्कर्ष पर पहुंच गया था। आजादी के बाद ट्रैफिक बढ़ता गया तो समय-समय पर रूट चेंज किया गया। लेकिन परंपरा का निर्वहन आज के दौर में बखूबी किया जा रहा है।

-राजीव भारद्वाज, अध्यक्ष प्रयाग गहरेबाजी संघ