तो फिर देवी को पूजते क्यों हो?

Patna: नारी शक्ति के नौ रूपों की पूजा-अर्चना घर-घर में चल रही है। नवमीं के दिन नौ कन्याओं को सम्मान के साथ भोजन भी कराओगे और दक्षिणा भी दोगे। क्या इससे देवी मां खुश हो जाएंगी? 


देवियों को चोट पहुंचाने का मौका नहीं छोड़ते
साल भर घर से बाहर तक देवियों को चोट पहुंचाने का मौका नहीं छोड़ते। शहर हो या गांव, बच्चियों का बचपन तक छीन लेते हो। वो पत्थर भी तोड़ेगी और किचन भी संभालेंगी। बेटियों का सम्मान कभी करोगे नहीं और मनोकामना यह रहेगी कि शक्ति की देवी कल्याण करेगी। यह कैसे संभव है? अगर सच में देवी को प्रसन्न करना चाहते हो तो सालों भर बेटियों को पूजना होगा.

दृश्य-1
टोकरी भर पत्थर तले दब रहा बचपन 
सासाराम ताराचंडी शक्ति पीठ के पीछे पहाड़ी की ओर तिलौथु जाने वाली सड़क के दोनों ओर दर्जनों बच्चियां दिख जाएंगी। सब के हाथ में हथौड़ा, एक टोकरी पत्थर तोडऩे पर 6 रुपए मिलते हैं। दिन भर में 30 से 36 रुपए कमा लेती है। निमियाडीह गांव की अधिकतर लड़कियों का काम यही है। कुछ लकी लड़कियां स्कूल भी जाती हैं, पर स्कूल से लौटने पर उन्हें भी पत्थर तोडऩा पड़ता है. 

दृश्य-2
ग्लैमर की दुनिया में बिक रहा बचपन 
मेरी बेटी की ये वाली फोटो पब्लिश कीजिएगा, सेक्सी लुक आना चाहिए। बोलती हूं, फोटो खिंचवाने समय थोड़ा पोज दे। मार्केट के ट्रेंड को समझती ही नहीं है। अब आप ही बताइए, धार्मिक टाइप की फोटो कोई पब्लिश करेगा क्या? सिर्फ इसलिए कि वह टीवी पर आएगी, मॉडलिंग असाइनमेंट मिलेगा। 13 साल की बच्ची के सामने पेरेंट्स के मुंह से ऐसी बात करने वाले को भी क्या देवी पूजने का हक है? 

दृश्य-3
बड़े अपार्टमेंट्स में छोटी सोच 
शाम 5 बजे पाटलीपुत्रा कॉलोनी का पार्क। हालांकि पार्क को ना पार्क कह सकते हैं ना प्ले ग्राउंड। फिर भी दर्जनों बच्चे साइकिल चलाते और खेलते-कूदते दिख जाएंगे। अगर इसमें गल्र्स की पर्सेंटेज देखें तो दो परसेंट भी नहीं दिखेगा। इतनी ही संख्या कृष्णापुरी या एसके नगर के पार्क में भी दिखेगी। शाम के समय अच्छी फैमिली से बच्चियां बाहर जाएंगी क्या? माहौल भी ठीक नहीं है, बदमाशों का क्या भरोसा? थोड़ा घर का काम सीख लेगी तो अच्छा ही है ना.

दृश्य-4
संभली नहीं कि किचन की जिम्मेदारी 
बोरिंग रोड पर गंगा-जमुना अपार्टमेंट में तीन रूम का आलीशान फ्लैट। 13 साल का मोहित गेस्ट के साथ मस्ती कर रहा है। 11 साल की नेहा सबको नींबू पानी बना कर देती है। बैलेंस बिगडऩे से ट्रे में एक ग्लास से जरा-सा पानी गिर जाने पर आंटी से जबरदस्त डांट पड़ती है। बड़े भाई को बॉर्नवीटा-दूध पिलाने की जिम्मेदारी भी नेहा ही उठाती है। हालांकि दोनों एक ही स्कूल में पढ़ते हैं, पर किचन की जिम्मेदारी तो आखिर नेहा ही उठाएगी ना. 


ऐसी बेटियों के लिए बिहार कब बदलेगा?
'भैया तो स्कूल जाता है, पर हमें कोई नहीं भेजता है। मम्मी यहां भेज देती है, बोलती है कुछ तो कमाओ। दहेज के पैसे तो जुटेगा नहीं.' सासाराम के निमियाडीह में 12 साल की मिठिया के मुंह से ये शब्द सुनकर यही सवाल उठता है कि ऐसी बेटियों के लिए बिहार कब बदलेगा? इन्हें तो साल में बस एक दिन नवमी को ही सम्मान मिल पाता है, बाकि दिन तो पत्थर ही तोडऩा है।  
लड़की वंश नहीं चलाती
जब आई नेक्स्ट रिपोर्टर ने पूछा कि सिर्फ बेटियां ही क्यों पत्थर तोड़ती हैं तो रोहतास की सोशल एक्टिविस्ट सविता डे कहती हैं कि ये हाल लगभग हर गांव का है। लड़कियों को स्कूल नहीं भेजना चाहते हैं। लड़के भले दिनभर गांव में शैतानी करते रहें पर, वो काम नहीं करेंगे। मर्द दिनभर भी ताश खेल सकते हैं। मनरेगा में दो दिन काम किया तो दो दिन महुआ या देशी ठर्रा पीएंगे। जब क्रशर मशीन पर गवर्नमेंट ने सख्ती बरती है, तब से बच्चियों का इस कारोबार में खूब इस्तेमाल हो रहा है। आज भी सबकी चिंता वंश चलाने और बढ़ाने की ही होती है.
प्ले ग्राउंड तो बॉयज के लिए है 
शाम या सुबह शहर में किसी भी पार्क का नजारा ले लीजिए। दादा अपने पोते के साथ तो पापा अपने बेटों के साथ ही दिखेंगे। कॉलोनी के लड़के अपने दोस्तों के साथ खेलते-मस्ती करते नजर आएंगे। हमारी सोसाइटी डेवलप होती जा रही है और गल्र्स घरों में ही कैद हो रही हैं। ब्वायज को तो खेलने-घूमने का मौका मिल जाता है, मगर गल्र्स को बाहर की हवा तक मुश्किल से नसीब होती है। शहर के पॉश एरिया का यह हाल है तो महादलित बस्तियों की चर्चा ही व्यर्थ है। तमाम सरकारी योजना को धता बताते हुए बच्चियों को स्कूल भेजना तो दूर भीख मंगवाने से लेकर चौराहों पर बिजनेस करने भी भेज देते हैं.
देवी मत मानो, महिला ही रहने दो
एमएमसी की प्रोफेसर डॉ। रेणु रंजन कहती हैं कि नारी को पूज सकते हैं, पर सम्मान देने की बात होती है तो पीछे हट जाते हैं। गल्र्स को प्रोडक्ट के तौर पर देखा जाता है। वर्किंग वुमन तो और ज्यादा ट्रॉमा झेलती हैं। ऑफिस में काम का प्रेशर, सहकर्मिंयों का बैड बिहेवियर और घर आकर टिपिकल हाउसवाइफ का रोल। कोई लड़की कैसे घर और बाहर दोनों जगह सौ प्रतिशत दे सकती है। महिलाओं को रिमोट से चलाने की सोच बदलनी होगी. 
रईस हैं तो भी क्या फर्क 
वीमन एक्टिविस्ट शाहिना परवीन कहती हैं कि इलीट क्लास में तो और ज्यादा जेंडर डिस्क्रीमिनेशन है। बात कीजिए तो कहेंगे हम बेटा-बेटी को एक समान मानते हैं। एक ही स्कूल में पढ़ाते हैं। लेकिन गौर से देखिए तो पता चल जाता है फर्क। बेटी को एक गुडिय़ा ला कर दे दो, वह खुश हो जाएगी और उससे चार साल छोटे भाई को वीडियो गेम ही चाहिए। ट्यूशन के बाद भी बेटे के लिए कार्टून सीरियल देखने का टाइम फिक्स होगा, पर बेटी छोटी भी हो तो मां के साथ किचन में होगी। बेटा उठकर फ्रिज से बॉटल भी नहीं निकाल सकता है। गेस्ट को पानी देना हो या खाना परोसना, सब काम बेटियां ही करेंगी। मानों उन्हें होमवर्क करना नहीं होता या फिर उनके स्कूल का काम कोई जिन्न कर देगा. 
टीवी पर आने को बचपन दांव पर
ऋतिका (काल्पनिक नाम) सिटी के फेमस स्कूल में क्लास सिक्स की स्टूडेंट है। एक बार डांस शो में अच्छा परफॉर्म करना उसे इतना भारी पड़ जाएगा, उसने सपने में नहीं सोचा होगा। वो बताती है कि मैंने मम्मी-पापा से कितना रिक्वेस्ट किया था कि एग्जाम देने दो, मगर कोई नहीं माना। टीचर भी बोली कि आगे प्रोमोट हो जाओगी। अच्छा डांस किया, पर सफल ना हो सकी। अब स्कूल वालों ने भी कह दिया कि सिक्स में ही रहना होगा। अब मम्मी-पापा कहते हैं कि स्कूल मत जाओ, एग्जाम दे देना। पटना के बाद दिल्ली में भी आंटी के यहां रहकर डांस सीख चुकी हूं। पर, मैं स्कूल जाना चाहती हूं। यह सिर्फ ऋतिका का दर्द नहीं है। आज घरवाले ही अपने स्वार्थ के चक्कर में बच्चों की जिंदगी खराब कर रहे हैं। छोटी-छोटी बच्चियों को डांस और एक्टिंग सिखाने का ट्रेंड चल पड़ा है। आई नेक्स्ट पटना के फेसबुक पेज और मेल आईडी पर कई ऐसे रिक्वेस्ट आते हैं, जिसमें पेरेंट्स खुद अपनी बच्चियों की सफलता को बढ़ा-चढ़ाकर दिखाते हैं। टीवी सीरियल्स के एक एपिसोड में या ऑडिशन के एक राउंड की सफलता के बाद ही अपनी बेटी को हीरोइन बनाने का ख्वाब देखने लगते हैं। इन्हें बेटियों के बचपन छीनने का जरा भी मलाल नहीं होता. 
 

घरवाले ही अपने स्वार्थ के लिए बेटी के बचपन और जीवन को खराब करें, ये सोच कर भी डर लगता है। पढ़ाई के लिए प्रेशर बनाएं न कि अपने शौक पूरे करने के लिए बच्चियों का बचपन छीन लें। एक्स्ट्रा करिकुलम को एक्स्ट्रा ही रहने दें. 
रेणु रंजन, एचओडी, सोशियोलॉजी, मगध महिला कॉलेज.

चार साल की है या 12 साल की, कोई फर्क नहीं पड़ता। दुश्मनी निकालने के लिए उनसे गैंगरेप से भी नहीं चूकते। कई मामले में रिश्तेदार भी ऐसी हरकत करते हैं। पूर्णिया में लास्ट एक साल में कई ऐसे केस आए हैं। कई घटनाओं में लड़कियों की फर्जी शादी कर या घरों में काम करने के लिए बेच दिया जाता है.
आभा एक्का, सोशल एक्टिविस्ट 

देवियों को चोट पहुंचाने का मौका नहीं छोड़ते
साल भर घर से बाहर तक देवियों को चोट पहुंचाने का मौका नहीं छोड़ते। शहर हो या गांव, बच्चियों का बचपन तक छीन लेते हो। वो पत्थर भी तोड़ेगी और किचन भी संभालेंगी। बेटियों का सम्मान कभी करोगे नहीं और मनोकामना यह रहेगी कि शक्ति की देवी कल्याण करेगी। यह कैसे संभव है? अगर सच में देवी को प्रसन्न करना चाहते हो तो सालों भर बेटियों को पूजना होगा।

दृश्य-1
टोकरी भर पत्थर तले दब रहा बचपन 
सासाराम ताराचंडी शक्ति पीठ के पीछे पहाड़ी की ओर तिलौथु जाने वाली सड़क के दोनों ओर दर्जनों बच्चियां दिख जाएंगी। सब के हाथ में हथौड़ा, एक टोकरी पत्थर तोडऩे पर 6 रुपए मिलते हैं। दिन भर में 30 से 36 रुपए कमा लेती है। निमियाडीह गांव की अधिकतर लड़कियों का काम यही है। कुछ लकी लड़कियां स्कूल भी जाती हैं, पर स्कूल से लौटने पर उन्हें भी पत्थर तोडऩा पड़ता है. 

दृश्य-2
ग्लैमर की दुनिया में बिक रहा बचपन 
मेरी बेटी की ये वाली फोटो पब्लिश कीजिएगा, सेक्सी लुक आना चाहिए। बोलती हूं, फोटो खिंचवाने समय थोड़ा पोज दे। मार्केट के ट्रेंड को समझती ही नहीं है। अब आप ही बताइए, धार्मिक टाइप की फोटो कोई पब्लिश करेगा क्या? सिर्फ इसलिए कि वह टीवी पर आएगी, मॉडलिंग असाइनमेंट मिलेगा। 13 साल की बच्ची के सामने पेरेंट्स के मुंह से ऐसी बात करने वाले को भी क्या देवी पूजने का हक है? 

दृश्य-3
बड़े अपार्टमेंट्स में छोटी सोच 
शाम 5 बजे पाटलीपुत्रा कॉलोनी का पार्क। हालांकि पार्क को ना पार्क कह सकते हैं ना प्ले ग्राउंड। फिर भी दर्जनों बच्चे साइकिल चलाते और खेलते-कूदते दिख जाएंगे। अगर इसमें गल्र्स की पर्सेंटेज देखें तो दो परसेंट भी नहीं दिखेगा। इतनी ही संख्या कृष्णापुरी या एसके नगर के पार्क में भी दिखेगी। शाम के समय अच्छी फैमिली से बच्चियां बाहर जाएंगी क्या? माहौल भी ठीक नहीं है, बदमाशों का क्या भरोसा? थोड़ा घर का काम सीख लेगी तो अच्छा ही है ना।

दृश्य-4
संभली नहीं कि किचन की जिम्मेदारी 
बोरिंग रोड पर गंगा-जमुना अपार्टमेंट में तीन रूम का आलीशान फ्लैट। 13 साल का मोहित गेस्ट के साथ मस्ती कर रहा है। 11 साल की नेहा सबको नींबू पानी बना कर देती है। बैलेंस बिगडऩे से ट्रे में एक ग्लास से जरा-सा पानी गिर जाने पर आंटी से जबरदस्त डांट पड़ती है। बड़े भाई को बॉर्नवीटा-दूध पिलाने की जिम्मेदारी भी नेहा ही उठाती है। हालांकि दोनों एक ही स्कूल में पढ़ते हैं, पर किचन की जिम्मेदारी तो आखिर नेहा ही उठाएगी ना. 

ऐसी बेटियों के लिए बिहार कब बदलेगा?
'भैया तो स्कूल जाता है, पर हमें कोई नहीं भेजता है। मम्मी यहां भेज देती है, बोलती है कुछ तो कमाओ। दहेज के पैसे तो जुटेगा नहीं.' सासाराम के निमियाडीह में 12 साल की मिठिया के मुंह से ये शब्द सुनकर यही सवाल उठता है कि ऐसी बेटियों के लिए बिहार कब बदलेगा? इन्हें तो साल में बस एक दिन नवमी को ही सम्मान मिल पाता है, बाकि दिन तो पत्थर ही तोडऩा है।  

लड़की वंश नहीं चलाती
जब आई नेक्स्ट रिपोर्टर ने पूछा कि सिर्फ बेटियां ही क्यों पत्थर तोड़ती हैं तो रोहतास की सोशल एक्टिविस्ट सविता डे कहती हैं कि ये हाल लगभग हर गांव का है। लड़कियों को स्कूल नहीं भेजना चाहते हैं। लड़के भले दिनभर गांव में शैतानी करते रहें पर, वो काम नहीं करेंगे। मर्द दिनभर भी ताश खेल सकते हैं। मनरेगा में दो दिन काम किया तो दो दिन महुआ या देशी ठर्रा पीएंगे। जब क्रशर मशीन पर गवर्नमेंट ने सख्ती बरती है, तब से बच्चियों का इस कारोबार में खूब इस्तेमाल हो रहा है। आज भी सबकी चिंता वंश चलाने और बढ़ाने की ही होती है।

प्ले ग्राउंड तो बॉयज के लिए है 
शाम या सुबह शहर में किसी भी पार्क का नजारा ले लीजिए। दादा अपने पोते के साथ तो पापा अपने बेटों के साथ ही दिखेंगे। कॉलोनी के लड़के अपने दोस्तों के साथ खेलते-मस्ती करते नजर आएंगे। हमारी सोसाइटी डेवलप होती जा रही है और गल्र्स घरों में ही कैद हो रही हैं। ब्वायज को तो खेलने-घूमने का मौका मिल जाता है, मगर गल्र्स को बाहर की हवा तक मुश्किल से नसीब होती है। शहर के पॉश एरिया का यह हाल है तो महादलित बस्तियों की चर्चा ही व्यर्थ है। तमाम सरकारी योजना को धता बताते हुए बच्चियों को स्कूल भेजना तो दूर भीख मंगवाने से लेकर चौराहों पर बिजनेस करने भी भेज देते हैं।

देवी मत मानो, महिला ही रहने दो
एमएमसी की प्रोफेसर डॉ। रेणु रंजन कहती हैं कि नारी को पूज सकते हैं, पर सम्मान देने की बात होती है तो पीछे हट जाते हैं। गल्र्स को प्रोडक्ट के तौर पर देखा जाता है। वर्किंग वुमन तो और ज्यादा ट्रॉमा झेलती हैं। ऑफिस में काम का प्रेशर, सहकर्मिंयों का बैड बिहेवियर और घर आकर टिपिकल हाउसवाइफ का रोल। कोई लड़की कैसे घर और बाहर दोनों जगह सौ प्रतिशत दे सकती है। महिलाओं को रिमोट से चलाने की सोच बदलनी होगी. 

रईस हैं तो भी क्या फर्क 
वीमन एक्टिविस्ट शाहिना परवीन कहती हैं कि इलीट क्लास में तो और ज्यादा जेंडर डिस्क्रीमिनेशन है। बात कीजिए तो कहेंगे हम बेटा-बेटी को एक समान मानते हैं। एक ही स्कूल में पढ़ाते हैं। लेकिन गौर से देखिए तो पता चल जाता है फर्क। बेटी को एक गुडिय़ा ला कर दे दो, वह खुश हो जाएगी और उससे चार साल छोटे भाई को वीडियो गेम ही चाहिए। ट्यूशन के बाद भी बेटे के लिए कार्टून सीरियल देखने का टाइम फिक्स होगा, पर बेटी छोटी भी हो तो मां के साथ किचन में होगी। बेटा उठकर फ्रिज से बॉटल भी नहीं निकाल सकता है। गेस्ट को पानी देना हो या खाना परोसना, सब काम बेटियां ही करेंगी। मानों उन्हें होमवर्क करना नहीं होता या फिर उनके स्कूल का काम कोई जिन्न कर देगा. 

टीवी पर आने को बचपन दांव पर
ऋतिका (काल्पनिक नाम) सिटी के फेमस स्कूल में क्लास सिक्स की स्टूडेंट है। एक बार डांस शो में अच्छा परफॉर्म करना उसे इतना भारी पड़ जाएगा, उसने सपने में नहीं सोचा होगा। वो बताती है कि मैंने मम्मी-पापा से कितना रिक्वेस्ट किया था कि एग्जाम देने दो, मगर कोई नहीं माना। टीचर भी बोली कि आगे प्रोमोट हो जाओगी। अच्छा डांस किया, पर सफल ना हो सकी। अब स्कूल वालों ने भी कह दिया कि सिक्स में ही रहना होगा। अब मम्मी-पापा कहते हैं कि स्कूल मत जाओ, एग्जाम दे देना। पटना के बाद दिल्ली में भी आंटी के यहां रहकर डांस सीख चुकी हूं। पर, मैं स्कूल जाना चाहती हूं। यह सिर्फ ऋतिका का दर्द नहीं है। आज घरवाले ही अपने स्वार्थ के चक्कर में बच्चों की जिंदगी खराब कर रहे हैं। छोटी-छोटी बच्चियों को डांस और एक्टिंग सिखाने का ट्रेंड चल पड़ा है। आई नेक्स्ट पटना के फेसबुक पेज और मेल आईडी पर कई ऐसे रिक्वेस्ट आते हैं, जिसमें पेरेंट्स खुद अपनी बच्चियों की सफलता को बढ़ा-चढ़ाकर दिखाते हैं। टीवी सीरियल्स के एक एपिसोड में या ऑडिशन के एक राउंड की सफलता के बाद ही अपनी बेटी को हीरोइन बनाने का ख्वाब देखने लगते हैं। इन्हें बेटियों के बचपन छीनने का जरा भी मलाल नहीं होता. 

घरवाले ही अपने स्वार्थ के लिए बेटी के बचपन और जीवन को खराब करें, ये सोच कर भी डर लगता है। पढ़ाई के लिए प्रेशर बनाएं न कि अपने शौक पूरे करने के लिए बच्चियों का बचपन छीन लें। एक्स्ट्रा करिकुलम को एक्स्ट्रा ही रहने दें।
रेणु रंजन, एचओडी, सोशियोलॉजी, मगध महिला कॉलेज.

चार साल की है या 12 साल की, कोई फर्क नहीं पड़ता। दुश्मनी निकालने के लिए उनसे गैंगरेप से भी नहीं चूकते। कई मामले में रिश्तेदार भी ऐसी हरकत करते हैं। पूर्णिया में लास्ट एक साल में कई ऐसे केस आए हैं। कई घटनाओं में लड़कियों की फर्जी शादी कर या घरों में काम करने के लिए बेच दिया जाता है।
आभा एक्का, सोशल एक्टिविस्ट 
chandan.sharma@inext.co.in