संध्या टंडन। समुद्र तट के किनारे बसा पुरी नामक ऐतिहासिक शहर अपने प्राकृतिक सौंदर्य के साथ बेहतरीन स्थापत्य कला के लिए भी मशहूर है। भगवान जगन्नाथ का निवास स्थान होने की वजह से इसे जगन्नाथपुरी भी कहा जाता है।

मंदिर से जुड़ा इतिहास
इस प्राचीन मंदिर को राजा इंद्रद्युम्न ने बनवाया था, जिसे उनके प्रतिद्वंद्वी राजाओं द्वारा नष्ट कर दिया गया। पुरी के लेखागर में पाए गए एक लेख के अनुसार वर्तमान मंदिर का निर्माण गंग वंश के सप्तम राजा अनंग भीमदेव ने किया। मंदिर का निर्माण कार्य 1108 ई. में पूर्ण हुआ। इसकी ऊंचाई 58 मीटर है। मंदिर के गर्भगृह में भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा जी की मूर्तियां हैं। दरअसल भगवान जगन्नाथ और बलभद्र श्रीकृष्ण और बलराम के ही रूप हैं और सुभद्रा उनकी बहन हैं। इस मंदिर की रसोई विश्व प्रसिद्ध है, जहां निरंतर भोजन बनता रहता है। इस पवित्र रसोई के संबंध में ऐसी मान्यता प्रचलित है कि चाहे कितनी ही भीड़ क्यों न हो, यहां भक्तों के लिए भोजन की कमी कभी नहीं होती।

प्रचलित कथा
किंवदन्तियों के अनुसार राजा इंद्रद्युम्न के मन में नीलांचल पर्वत पर स्थित नीलामाधव देव के दर्शन की इच्छा जाग्रत हुई। वे पर्वत पर जाकर दर्शन करने की योजना बना ही रहे थे कि तभी नीलमाधव देव का विग्रह देवलोक चला गया। इससे राजा को बड़ी निराशा हुई लेकिन तभी आकाशवाणी हुई-'हे राजन् ! आप चिंता न करें। आपको लकड़ी में भगवान जगन्नाथ के दर्शन होंगे। समुद्र से प्राप्त लकड़ी के एक बहुत बड़े टुकड़े से देवताओं के शिल्पकार विश्वकर्मा जी को विग्रह निर्माण के लिए नियुक्त किया गया। 

विश्वकर्मा जी इसी शर्त पर तैयार हुए कि विग्रह के निर्माण काल के दौरान कोई भी व्यक्ति उसे नहीं देखेगा, किंतु कई दिन बीत जाने के बाद राजा अपनी जिज्ञासा रोक नहीं पाए और वह मूर्तियों को देखने चले आए। विश्वकर्मा जी को जब यह बात मालूम हुई तो वह क्रोधित होकर वहां से चले गए। इस तरह तीनों मूर्तियां अधूरी रह गईं। राजा इंद्रद्युम्न बहुत दुखी हो गए लेकिन उसी समय यह आकाशवाणी हुई, 'हे राजन्! आप चिंता न करें, इसी स्वरूप में हम तीनों को अलंकृत करके प्रतिष्ठित करवा देंगे। इस तरह तीनो विग्रहों की प्राण-प्रतिष्ठा पूर्ण हो गई। 

प्रत्येक वर्ष आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की द्वितीया से द्वादशी तक पुरी में दस दिनों का रथयात्रा-महोत्सव होता है। भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और उनकी बहन सुभद्रा की मूर्तियों को रथ में बैठाकर जगन्नाथ मंदिर से गुंडिचा मंदिर तक खींचकर पहुंचाया जाता है। यह यात्रा भगवान श्रीकृष्ण की मथुरा से गोकुल यात्रा का प्रतीक है। इस अवसर पर देश के विभिन्न हिस्सों से लाखों की श्रद्धालु जगन्नाथपुरी में एकत्र होते हैं। 

 

संध्या टंडन। समुद्र तट के किनारे बसा पुरी नामक ऐतिहासिक शहर अपने प्राकृतिक सौंदर्य के साथ बेहतरीन स्थापत्य कला के लिए भी मशहूर है। भगवान जगन्नाथ का निवास स्थान होने की वजह से इसे जगन्नाथपुरी भी कहा जाता है।

मंदिर से जुड़ा इतिहास

इस प्राचीन मंदिर को राजा इंद्रद्युम्न ने बनवाया था, जिसे उनके प्रतिद्वंद्वी राजाओं द्वारा नष्ट कर दिया गया। पुरी के लेखागर में पाए गए एक लेख के अनुसार वर्तमान मंदिर का निर्माण गंग वंश के सप्तम राजा अनंग भीमदेव ने किया। मंदिर का निर्माण कार्य 1108 ई. में पूर्ण हुआ। इसकी ऊंचाई 58 मीटर है। मंदिर के गर्भगृह में भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा जी की मूर्तियां हैं। दरअसल भगवान जगन्नाथ और बलभद्र श्रीकृष्ण और बलराम के ही रूप हैं और सुभद्रा उनकी बहन हैं। इस मंदिर की रसोई विश्व प्रसिद्ध है, जहां निरंतर भोजन बनता रहता है। इस पवित्र रसोई के संबंध में ऐसी मान्यता प्रचलित है कि चाहे कितनी ही भीड़ क्यों न हो, यहां भक्तों के लिए भोजन की कमी कभी नहीं होती।

प्रचलित कथा

किंवदन्तियों के अनुसार राजा इंद्रद्युम्न के मन में नीलांचल पर्वत पर स्थित नीलामाधव देव के दर्शन की इच्छा जाग्रत हुई। वे पर्वत पर जाकर दर्शन करने की योजना बना ही रहे थे कि तभी नीलमाधव देव का विग्रह देवलोक चला गया। इससे राजा को बड़ी निराशा हुई लेकिन तभी आकाशवाणी हुई-'हे राजन् ! आप चिंता न करें। आपको लकड़ी में भगवान जगन्नाथ के दर्शन होंगे। समुद्र से प्राप्त लकड़ी के एक बहुत बड़े टुकड़े से देवताओं के शिल्पकार विश्वकर्मा जी को विग्रह निर्माण के लिए नियुक्त किया गया। 

विश्वकर्मा जी इसी शर्त पर तैयार हुए कि विग्रह के निर्माण काल के दौरान कोई भी व्यक्ति उसे नहीं देखेगा, किंतु कई दिन बीत जाने के बाद राजा अपनी जिज्ञासा रोक नहीं पाए और वह मूर्तियों को देखने चले आए। विश्वकर्मा जी को जब यह बात मालूम हुई तो वह क्रोधित होकर वहां से चले गए। इस तरह तीनों मूर्तियां अधूरी रह गईं। राजा इंद्रद्युम्न बहुत दुखी हो गए लेकिन उसी समय यह आकाशवाणी हुई, 'हे राजन्! आप चिंता न करें, इसी स्वरूप में हम तीनों को अलंकृत करके प्रतिष्ठित करवा देंगे। इस तरह तीनो विग्रहों की प्राण-प्रतिष्ठा पूर्ण हो गई। 

प्रत्येक वर्ष आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की द्वितीया से द्वादशी तक पुरी में दस दिनों का रथयात्रा-महोत्सव होता है। भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और उनकी बहन सुभद्रा की मूर्तियों को रथ में बैठाकर जगन्नाथ मंदिर से गुंडिचा मंदिर तक खींचकर पहुंचाया जाता है। यह यात्रा भगवान श्रीकृष्ण की मथुरा से गोकुल यात्रा का प्रतीक है। इस अवसर पर देश के विभिन्न हिस्सों से लाखों की श्रद्धालु जगन्नाथपुरी में एकत्र होते हैं। 

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