ताज सिटी में भीख कोई अभिशाप नहीं, जिंदगी बसर करने का एक बेहतरीन रोजगार। अच्छे-खासे मुनाफे वाला धंधा। इसमें दुधमुंहे बच्चों से लेकर उम्र के अंतिम पड़ाव पर खड़े लोगों में मजबूरी कम, शानदार ऑप्शन होने की संतुष्टि ज्यादा झलकती है। बगैर लागत के मजबूरों की इस जमात में रहस्यमयी ताकतों ने भी पैर पसार लिए हैं। भीख की रकम में उनका भी हिस्सा लगता है। भीख मांग रहे मासूमों के हाथों में आने वाली कमाई के हिस्से से लोगों के घर चलते हैं। तन पर चिथड़े टांगकर भीख मांगने वालों की रकम से लोग शॉपिंग करते हैं। भूख पेट का हवाला देकर लोगों से रहम की भीख मांगने वालों की मिन्नतों से वे बिरयानी का मजा लेते हैं। ऐसा नहीं कि वे सिर्फ अपना ही ख्याल रखते हैं। अपने धंधे में शामिल लोगों की जरूरतों का भी पूरा ख्याल रखा जाता है। उनके लिए शाम ढलते ही ठिकाने पर शराब भी पहुंचाई जाती है। ताकि वे दिनभर की थकान को इसके घूंट से उतार सकें। सिटी से सटे इलाके से बकायदा भीख मांगने के धंधे को अंजाम दिया जाता है। गोद में दुधमुंहे बच्चे लेकर सुबह होते ही महिलाएं दिन के हिसाब से तय ठिकानों पर पहुंच जाती हैं। शाम होते ही अपनी कमाई का आधा हिस्सा इलाके की आंटी के हाथ में रखने के बाद उनके घर का चूल्हा जल पाता है। सिटी के बीच में बसी झुग्गियों से भी परिवार के परिवार निकलते हैं शहर के चौक-चौराहों पर भीख मांगने के लिए। शाम होते-होते अपनी पोटली में डेढ़ सौ से दो सौ रुपए लेकर वे वापस लौटते हैं। फिर चाहे वह बच्चा हो या फिर बुजुर्ग। ढोलक मढऩे, चाकू पर धार रखने, नग बेचने, तारों की टोकरी बेचने के लिए जहां इस बस्ती के पुरुष शहर में निकलते हैं। वहीं घर की महिला और बच्चे रोड पर भीख मांगकर अपनी अर्थव्यवस्था को और मजबूत करने के लिए। ऑर्गनाइज्ड और अनॉर्गनाइज्ड, दोनों ही तरीकों से सिटी में भीख मांगने का धंधा चल रहा है।

 अलग-अलग गेट पर अलग-अलग आंटी की सल्तनत

नेशनल हाइवे स्थित अबुलउलाह दरगाह पर आमतौर पर थर्सडे को भिखारियों का जमावड़ा लगता है। मुरादें मांगने और उनके पूरी होने पर लोगों के चिरागी करने का सिलसिला सुबह से शुरू होता है तो फिर देर रात तक नहीं थमता। भिखारियों के लिए इस मुकर्रर दिन से ज्यादा मुफीद जगह और कोई नहीं। हजारों की संख्या में दरगाह पर हाजिरी लगाने वालों की संख्या को देखते हुए दरगाह के दोनों ही गेट पर करीब सौ भिखारियों का जमावड़ा लगा रहता है।

तय है उनका हिस्सा

दोनों गेट पर भिखारियों की जमात में शामिल बुजुर्ग से लेकर किशोर उम्र बच्चे ही नहीं, दुधमुंहों बच्चों को गोद में लिए महिलाओं का कब्जा है। लेकिन, उनकी रकम का आधा हिस्सा कुछ देर के लिए यहां आने वाली आंटियों का भी है। दोपहर में इनके आने से पहले ही भिखारी एक जगह जुट जाते हैं। अपनी-अपनी रकम का हिसाब कर उनकी बकायदा पोटली भी तैयार हो जाती है। एक महिला के साथ आंटी के आते ही कोई उनके गले मिलता है तो कोई पैर छूने को बेताब होता है। बिल्कुल इस तरह से जैसे कोई रहमोकरम करने का अहसान उनके मन पर लदा हो।

मासूमियत की कमाई से बिरयानी

देखते ही देखते नजारा बदल जाता है। बच्चों के भूखे होने की दुहाई देकर एक रुपए के लिए गिड़गिड़ाने वाली महिलाएं उन दोनों की आवभगत को टूट पड़ती हैं। भरी दोपहरी में उनकी थकान दूर करने के लिए कोई आइसक्रीम लाता है तो कोई गन्ने का जूस। इसी बीच एक महिला अपने मासूम बच्चे को जमीन पर छोड़कर बिरयानी वाले के पास पहुंच जाती है। शायद उसे उन दोनों महिलाओं की पसंद का पूरा अंदाजा था। देखते ही देखते बिरयानी भी पैक होकर आ जाती है। यह सब उसी रकम से जो उन्होंने सुबह से लेकर दोपहर तक भीख मांगकर जुटाई। कुछ ही लम्हों में अलग रखी गई रकम भी वे उन दोनों महिलाओं में से एक के हाथ में थमा देती हैं। भीख मांगने वाली महिलाओं से विदा लेने के बाद ये दोनों महिलाएं दरगाह और नेशनल हाइवे के बीच बाजार में जगह-जगह शॉपिंग करती हैं। कपड़े, अंगूठी, घर को सजाने के लिए लड़ी और न जाने क्या-क्या। मजबूरी

केस वन

संजय प्लेस का जूस कॉर्नर पर दोपहर के तीन बजे थे। आसमान में धधकता सूरज पूरी ताकत के साथ धरती को झुलसाने में जुटा हुआ था। बड़ी बड़ी एयरकंडिशनर कारें जैसे ही वहां आकर रुकती वहां पर मैले कुचैले कपड़ों में खड़े भीख मांगते बच्चों की आंखों में चमक सी आ जाती। बच्चों के साथ एक तकरीबन 50 साल की बूढ़ी औरत कारों के पास जाती और हाथ फैलाकर भीख मांगती, लेकिन उसके कपड़े साफ थे। चेहरा मोहरे से वह कहीं भिखारिन नहीं लग रही थी। भीख मांगते हुए उसकी आंखों में संकोच साफ नजर आ रहा था. 

केस टू

सेंट जोंस कॉलेज के हनुमान मंदिर के पास रहने वाली गीता की तीन बेटियां हैं। तीनों स्कूल में पढ़ती हैं। दो बेटियों की फीस माफ है। जबकि तीसरी बेटी की फीस जाती है। पति कमाने वाला था, लेकिन शराब जुए और शेयर में सब कुछ गवां दिया। वह अपनी तीनों बेटियों के साथ अकेली रहती है। अनपढ़ गीता ने पहले एक कोठी में काम भी किया। वहां से उसे दो वक्त का खाना मिला। महीने के आखिर में तीन सौ रुपए। परिवार चलाने के लिए जब उसे कोई साधन नहीं मिला तो उसने भीख मांगना शुरू कर दिया। गीता ने बताया कि भीख से वह रोजाना 80 से 150 रुपये तक कमा लेती है। उसके घर का गुजारा उससे चल जाता है। वह काम करना चाहती है जहां से उसे महीने के तीन से चार हजार रुपये मिल जाएं, लेकिन मजबूरी है कि वह जरा भी पढ़ी लिखी नहीं है। उम्र का ताकाजा भी है तो ज्यादा मेहनत नहीं कर सकती। ऐसे में यदि उसे कहीं छोटा मोटा काम मिलता भी है तो उसमें इतने रुपए नहीं मिलते है। जिससे की उसका गुजारा चल जाए। इसलिए वह भीख मांगकर अपने परिवार का गुजारा करती है। दोनों ही केसेज में आईनेक्स्ट रिपोर्टर ने पाया कि ये मजबूरी इनकी नहीं है.