यूपी का शहर वाराणसी जिसे हम प्राचीन काशी के नाम से भी जानते हैं। यह शहर अपने खूबसूरत और प्राचीन घाटों और काशी विश्‍वनाथ मंदिर के लिए ही मशहूर नहीं हैं बल्‍िक उनके अलावा यहां पर है भगवान विष्‍णु द्वारा ही स्‍थापित 'आदि केशव मंदिर'। यह मंदिर भगवान शिव के विश्‍वनाथ मंदिर से भी ज्‍यादा प्राचीन माना जाता है। कई पौराणिक ग्रंथ इस मंदिर की स्‍थापना के साक्षी हैं। 'बना रहे बनारस' की इस कड़ी में आइए करें काशी के प्राचीनतम मंदिर का सफर।

भगवान विष्णु ने स्वयं स्थापित किया 'आदि केशव मंदिर'
भगवान विष्णु के काशी में स्थित मंदिरों की बात की जाये तो आदि केशव का मंदिर काफी प्राचीन एवं धार्मिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है। कैंट स्टेशन से करीब आठ किलोमीटर दूर राजघाट के पास बसंता कालेज से होते हुए वरूणा-गंगा संगम पर यह बेहद सुन्दर मंदिर स्थित है। कथा के अनुसार राजा दिवोदास से काशी प्राप्ति की इच्छा से गणेश जी सहित सभी देवताओं को भगवान भोलेनाथ ने काशी भेजा था, लेकिन काशी को प्राप्त करने की उनकी इच्छा पूरी न हो सकी। क्योंकि जो भी देवता काशी को दिवोदास से मुक्त कराने आये वे यहां की सुन्दरता देखकर वापस भगवान शिव के पास नहीं गये। शिव जी ने इस कार्य के लिए भगवान विष्णु को काशी भेजा। भगवान शिव के निर्देश पर विष्णु जी लक्ष्मी सहित गरूड़ पर सवार होकर शिव जी की प्रदक्षिणा कर उन्हें प्रणाम किया और मंदराचल पर्वत से काशी के लिए चल पड़े। काशी में उन्हें वरूणा गंगा संगम स्थल पर श्वेत द्वीप दिखाई दिया। वे अपने वाहन के साथ इसी स्थान पर उतर गये। संगम पर उन्होंने स्नान किया। जिससे यह तीर्थ विष्णु पादोदक के नाम से प्रसिद्ध हुआ। स्नान के बाद भगवान विष्णु ने भोलेनाथ का स्मरण कर काले रंग के पत्थर की अपनी त्रैलोक्य व्यापिनी मूर्ति आदि केशव की स्वयं स्थापना की। साथ ही कहा कि जो लोग अमृत स्वरूप अविमुक्त क्षेत्र (काशी ) में मेरे आदि केशव रूप का दर्शन-पूजन करते हैं, वे सब दुःखों से रहित होकर अंत में अमृत पद को प्राप्त करेंगे।


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आदि काल में स्थापित इस मंदिर पर कभी मुगलों तो कभी अंग्रेजों ने किया कब्जा

प्राचीन काल से स्थापित इस मंदिर का बाद में पुर्ननिर्माण गड़वाल नरेश ने कराया था। जिसे 1194 में तोड़ दिया गया। मुस्लिम शासन के दौरान उपेक्षित इस मंदिर का पुनर्निर्माण 1807 में ग्वालियर के महाराजा सिन्धिया के दीवान मालो ने कराया। बाद में 1857 के विद्रोह के बाद अंग्रेजी फौज ने इस मंदिर का अधिग्रहण कर लिया और पुजारी को बाहर कर दर्शन-पूजन पर प्रतिबंध लगा दिया। करीब 2 वर्ष बाद 1859 में पुजारी केशव भट्ट ने अंग्रेज कमिश्नर को प्रार्थना पत्र देकर मंदिर में पूजा पाठ शुरू करने की आज्ञा मांगी। तब जाकर मंदिर में पूजा शुरू हुई हालांकि आम दर्शनार्थियों के लिए प्रतिबंध यथावत था। इस मंदिर में निर्बाध रूप से दर्शन-पूजन 19वीं सदी से शुरू हुआ। वीडियो में देखें गंगा और वरुणा नदियों के संगम पर स्थित आदि केशव मंदिर।

 

 

 

 

 

 

 

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साल में 3 बार 'आदि केशव मंदिर' पर होते हैं भव्य आयोजन

पत्थरों से निर्मित इस मंदिर के मध्य गर्भगृह में आदि केशव की अलौकिक मूर्ति स्थापित है। आदि केशव मंदिर में समय-समय पर भजन-कीर्तन एवं श्रृंगार के कार्यक्रम तो होते रहते हैं लेकिन बड़ा आयोजन वर्ष भर में 3 बार होता है। चैत्र महीने की कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी को बारूनी पर्व मनाया जाता है। इस दौरान मंदिर के आस-पास मेले का आयोजन होता है। काफी संख्या में भक्त वरूणा-गंगा संगम में स्नान कर आदि केशव भगवान का दर्शन करते हैं। इसके बाद भाद्र महीने के शुक्ल पक्ष की द्वादशी तिथि को बामन द्वादशी मेला लगता है। जबकि पूष माह के कृष्ण पक्ष की प्रथमा तिथि को नगर परिक्रमा होती है। इस दौरान श्रद्धालु नगर भ्रमण करते हुए वरूणा-गंगा तीर्थ पर स्नान करने के बाद आदि केशव का दर्शन-पूजन कर आशीर्वाद प्राप्त करते हैं। पंचक्रोशी यात्रा के दौरान भी यात्री आदि केशव पहुंचकर दर्शन-पूजन करते हैं। इस मंदिर की खासियत यह है कि गर्भगृह के पास से मां गंगा की अविरल धारा बहती हुई दिखाई देती है। मंदिर बेहद शांत एवं रमणीय लगता है।
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Posted By: Inextlive