Patna: बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन में अब साहित्यकार नहीं आते. साहित्यिक बातें भी नहीं होती. साहित्य का छपना तो बंद हो ही गया है हिन्दी व अन्य भाषाओं का पठन-पाठन भी नहीं होता है. कदमकुआं स्थित साहित्य सम्मेलन की इस बिल्डिंग की रंगाई-पुताई नहीं हुई है.


  बिल्डिंग के नाम पर लूट मची हैआसपास के लोग इसे कबाड़ बिल्डिंग मान चुके हैं। रेसिडेंशियल लोग मानते हैं कि इस बिल्डिंग के नाम पर लूट मची है। अध्यक्ष पद की दावेदारी को लेकर दो गुटों में जमकर बवाल मचा है। अध्यक्ष जो भी हो, 1990 के बाद से ही लोगों ने यहां पर साहित्यिक संगोष्ठी नहीं देखी है। लोगों का मानना है कि यह बिल्डिंग 104 साल पुरानी हो चली है और अब यह अपने लास्ट फेज में है। साहित्यकार बताते हैं कि किसी जमाने में यहां देशभर के नामी साहित्यकारों का जमावड़ा लगता था। इस बिल्डिंग की खासियत है कि इसके लिए कोई भी कुछ भी करने को तैयार हो जाएंगे।सलाना इनकम है दस लाख
कदमकुआं मेन रोड पर होने से अब आसपास के लोग इसका यूज मैरेज हॉल या फिर प्रोग्राम के लिए काफी करने लगे है। सोर्सेज की माने तो सलाना दस लाख रुपए इनकम होता है। इन पैसों का क्या होता है। इसका हिसाब अब तक कोई नहीं देता है। कैंपस की अपनी दुकान भी है। इससे भी महीने का भाड़ा आता है, जिससे वहां शाम का चाय-नाश्ता चलता है। खाने-पीने का यहां पर हिसाब नहीं लिया जाता है। जो भी खर्चा होता है, वो यहां आने वाले पैसे के हिसाब से ही होता है। साहित्यिक एक्टिविटीज के नाम पर साल भर में कुछ रुपए खर्च हुए हैं, जिसमें जयंती भी शामिल हैं। बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन जिस कद का माना जाता है, उस हिसाब से प्रोग्राम हुए सालों बीत गए।न कवि रहे, न होता सम्मेलन कवि सत्यनारायण बताते हैं कि इस बिल्डिंग में रामधारी सिंह दिनकर, रामवृक्ष बेनीपुरी, लक्ष्मी नारायण सुधांशु, मैथिली शरण गुप्त, सुमित्रा नंदन पंत, अज्ञेय, शिवपूजन सहाय जैसे लोग आते थे, जिनकी बातें सुनने के लिए भीड़ जुटती थी। बिहार के साहित्यिक तीर्थ माने जाने वाले बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन में आज भी बड़े साहित्यकार के भाषणों पर पुस्तक बना कर रखी हुई है, पर 1990 के बाद से इस बिल्डिंग का पूरी तरह से व्यवसायीकरण हो गया है। अब न तो कवि व साहित्यकार आते हैं और न ही सम्मेलन ही होता है। जो इससे जुड़े हैं, उनका साहित्य से कोई लेना-देना नहीं है।जब नए कवियों की होती थी क्लास

उन दिनों नवीन विलोचन शर्मा साहित्य पत्रिका का संपादकीय देखते थे। उन दिनों हर शाम बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन में नए कवियों व साहित्यकारों की क्लास होती थी, जिसमें हिन्दी और दक्षिण की भाषा पर चर्चा होती थी। हर साहित्यकार का हुआ करता था कुंभस्टेट व कंट्री लेवल पर जो भी साहित्यकार थे, उनका साल में एक बार बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन आना निश्चित हुआ करता था। यहीं के मंच से आगे का रास्ता तय होता था और साहित्य की धारा बहती थी। 1980 के बाद से इसका क्रेज घटता चला गया।पहली बार हुआ था लाखों का स्कैम बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन से जुड़े व कार्यसमिति के मेंबर्स सुधीर कुमार मंटू बताते हैं कि उन दिनों दुकान देने के नाम पर प्रधानमंत्री के पद पर रहे लोगों ने जमकर लूट मचायी। लोगों से पैसे ले लिए और सारी कमाई अपनी जेब में डाल ली, जिसके बाद से इससे विश्वसनीयता लोगों की कम होती चली गयी। घटना के पीछे की घटना

विधायक पति अजय सिंह और अनिल सुलभ के बीच की जंग फिलहाल थमने का नाम नहीं ले रहा है। कैंपस में पुलिस की तैनाती भी कर दी गयी है। एक गुट अजय सिंह को अध्यक्ष मान चुका है, जबकि दूसरे गुट का रिजल्ट छह अक्टूबर को आना है। एक कुर्सी के दो दावेदार की कहानी भी मजेदार है। दरअसल, जब अनिल सुलभ अध्यक्ष बने, तो उनके प्रधानमंत्री राम नरेश सिंह से उनका छत्तीस का आंकड़ा शुरू हो गया। अनिल सुलभ ने रामनरेश सिंह को भ्रष्टाचार के आरोप में हटा दिया, जिसके बाद रामनरेश सिंह की ओर से अजय सिंह को आगे किया गया। अजय सिंह को राम नरेश सिंह के गुट की ओर से निर्विरोध चुन लिया गया। अब अनिल सुलभ गुट की ओर का फैसला छह अक्टूबर को आना है। फिलहाल एडमिनिस्ट्रेशन के निर्देश पर यहां आने-जाने पर प्रतिबंध लगा हुआ है। ब्रेन ट्रस्ट ऑफ बिहार कदमकुआं
वर्तमान में लोग चूड़ी मार्केट, फर्नीचर का होल सेल मार्केट, लस्सी, पान, पूजन सामग्री के लिए कदमकुआं जाते हैं। कदमकुआं जाने व आने के दौरान जाम से दो-चार होना पड़ता है। पर, बहुत कम लोगों को पता होगा कि किसी जमाने में इसे ब्रेन ट्रस्ट ऑफ बिहार कहा जाता था। कांग्रेस मैदान से आजादी की हुंकार जब उठती थी, तो अंग्रेज का कलेजा हिल जाता था। घरों के नीचे सुरंग के सहारे आंदोलनकारी कांग्रेस मैदान तक पहुंचते थे, जिसके आज भी निशान हैं। अनुग्रह नारायण सिंह, लाल बहादुर शास्त्री की बहन सुंदरी देवी, इनके पति शंभू शरण, फस्र्ट प्रेसीडेंट राजेन्द्र प्रसाद, जय प्रकाश नारायण, नामी-गिरामी एडवोकेट और डॉक्टर्स यहां रहते थे। 1942 से 1947 की कहानी यहीं बुनी गई थी।   Posted By: Inextlive