बॉलीवुड और फोक म्यूजिक का सिलसिला उस समय से ही शुरू हो गया था जब पहली फिल्म ‘आलम आरा’ 1931 में रिलीज हुई थी. बिना डायलॉग की इस फिल्म की जुबां बनी थी सारंगी. इसके बाद फोक म्यूजिक तो जैसे बॉलीवुड की परछाईं बन गया. हां कभी इसका असर फिल्मों में कुछ कम दिखता तो कभी ऐसी धुनें बन जातीं कि लोग झूमने पर मजबूर हो जाते. आइए आपको बताते हैं कि कैसे बॉलीवुड में फोक म्यूजिक ने अपनी जगह बना कर रखी है...

जब मिला पहला भोजुपरी सांग


फिल्मों में फोक म्यूजिक को इंट्रोड्यूस करने का क्रेडिट लीजेंड्री म्यूजीशियन नौशाद, शमशाद बेगम, नूरजहां, उमादेवी, जौहरबाई अंबालेवाली और गुलाम हैदर जैसे लोगों को जाता है. ये वो नाम हैं जिन्होंने 40 के दशक में फीके पड़ते फोक म्यूजिक को 50 के दशक के हिंदी सिनेमा में फिर से जिंदा कर दिया. 50 का दशक वो दौर था जब एक से बढक़र एक फोक बेस्ड हिंदी फिल्म सांग लोगों को सुनने को मिले. ‘बैजू बावरा’ का, ‘तू गंगा की मौज’ हो या फिर सुपरहिट फिल्म ‘नागिन’ में बजाई गई बीन हो, या फिर बिमल रॉय की फिल्म ‘मधुमती’ का गाना, ‘चढ़ गयो पापी बिछुआ,’ हो, हर गाने में आपको फोक का एक बेहतरीन टच मिल जाएगा. इन सब गीतों के बीच ही नौशाद अपने अंदाज से फोक को एक अलग पहचान देने में लगे हुए थे. उन्होंने अगर ‘मुगल-ए-आजम’ का बेहतरीन म्यूजिक तैयार किया तो इंडियन सिनेमा को पहला भोजपुरी सांग भी दिया. नौशाद ही वो शख्स थे जिन्होंने फिल्म ‘गंगा जमुना’ के ‘नैन लड़ जइहें’ के जरिए बॅालीवुड को पहला भोजपुरी संाग गिफ्ट किया.


कैसे भूलें सचिन दा को


इंडियन सिनेमा में अगर फोक म्यूजिक को किसी ने मजबूती से खड़ा किया तो वे थे सचिन देव बर्मन. उनकी हर फिल्म ने किसी न किसी तरह से वेस्ट बंगाल के रबिन्द्र संगीत को फिल्मी अंदाज में सलीके से पर्दे पर पेश किया. फिल्म ‘बंदिनी’ का, ‘ओ रे मांझी’ हो या फिर ‘गाइड’ का, ‘यहां कौन है तेरा,’ हो, बर्मन दा ने 60 के दौर में फोक म्यूजिक को एक अलग ही टच दिया. बर्मन दा के अलावा शंकर-जयकिशन, ओपी नैय्यर, लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल और कल्याणजी-आनंदजी जैसे लोग अपने-अपने अंदाज से फोक म्यूजिक को क्रिएट करने में लगे हुए थे. अगर ये कहा जाए कि पुराना इंडियन सिनेमा सिर्फ फोक म्यूजिक पर ही बेस्ड था तो गलत नहीं होगा.


जब कम होने लगा असर


इंडियन फोक म्यूजिक के लिए 80 से 90 का दशक कुछ बुरा कहा जा सकता है. ये वो समय था जब फिल्मों में वेस्टर्न म्यूजिक की वजह से फोक म्यूजिक का असर कम होने लगा था. इस दौर में सुभाष घई, यश चोपड़ा और सूरज बडज़ात्या जैसे फिल्म मेकर्स अपनी फिल्मों के जरिए फोक म्यूजिक को बढ़ावा देने में लगे हुए थे. इनकी फिल्मों का म्यूजिक लोगों की नब्ज को तो ध्यान में रखता ही साथ में फोक की मिठास से भी लोगों को रूबरू करवाता.


albums ने की मदद


90 के दौर में फोक म्यूजिक के लिए शायद प्राइवेट एलबम ने फिर से फोक को जिंदा किया. इस दौर में लोगों के बीच इला अरूण, दलेर मेहंदी, रेमो फर्नांडिज और लेजले लुईस जैसे लोग आए. इन लोगों ने प्राइवेट एलबम के जरिए यूपी, पंजाब और गोवा जैसी जगहों का फोक म्यूजिक से लोगों को दिया.

Posted By: Garima Shukla