शुरू होने वाले हैं माता के नवरात्रे। मां के मंदिरों में लगने वाली भक्‍तों की लंबी कतारें। ऐसे में मां के शक्‍तिपीठों पर पहुंचने के लिए भक्‍त लग गए हैं तैयारियों में। अब जिक्र शक्‍तिपीठ का आया है तो मां के छिन्‍नमस्‍तिका स्‍वरूप की याद सबसे पहले आती है। मां के सभी स्‍वरूपों में उनका ये रूप भक्‍तों के बीच सबसे ज्‍यादा पूजनीय है। सिर्फ यही नहीं यहां की अनोखी परंपरा भी इस शक्‍तिपीठ का औरों से अलग बनाती है। आइए देखें कहां होंगे मां के इस स्‍वरूप के दर्शन और क्‍या है यहां की खास परंपरा।


यहां ऐसा स्वरूप है मां का झारखंड की राजधानी रांची से करीब 80 किलोमीटर दूर रजरप्पा में स्थित है मां छिन्नमस्तिका का मंदिर। मां छिन्नमस्तिका का मंदिर शक्तिपीठों के रूप में सबसे ज्यादा विख्यात है। यहां भक्त बिना सिर वाली मां की देवी स्वरूप में पूजा करते हैं। इनको लेकर भक्तों का ऐसा मानना है कि मां उनकी सारी मनोकामनाएं पूरी करेंगी। दूसरी बड़ी शक्तिपीठ हैं ये वैसे मां के शक्तिपीठो पर गौर करें तो असम स्थित मां कामाख्या देवी मंदिर सबसे बड़ी शक्तिपीठ है। वहीं रजरप्पा का ये छिन्नमस्तिका मंदिर दूसरी सबसे बड़ी शक्तिपीठ है। मंदिर की गरिमा को लेकर यहां के वरिष्ठ पुजारी असीम पंडा बताते हैं कि वैसे तो पूरे साल यहां श्रद्धालुओं की भीड़ कम नहीं होती। वहीं चैत्र और शारदीय नवरात्रों में तो यहां भीड़ की स्थिति देखने लायक होती है। इतना प्राचीन है ये शक्तिपीठ  
मंदिर की मान्यता को लेकर कई विशेषज्ञों का कहना है कि इस मंदिर का निर्माण 6000 साल पहले हुआ था। वहीं कई विशेषज्ञ तो इसको महाभारत काल का भी बताते हैं। मंदिर की उत्तरी दीवार के साथ रखे एक शिलाखंड पर दक्षिण की ओर रुख किए माता छिन्नमस्तिका का स्वरूप अंकित है। भक्त दूर-दूर से मां के इस स्वरूप की पूजा करने के लिए आते हैं।  ऐसी है कहानी इस कथा के बारे में विशेषज्ञ बताते हैं कि एक बार मां भवानी अपनी दो सहेलियों के साथ मंदाकिनी नदी में स्नान करने के लिए आई थीं। स्नान करने के बाद उनकी सहेलियों को इतनी तेज भूख लगी कि भूख से बेहाल उनका रंग तक काला पड़ने लगा। भूख से परेशान उनकी सहेलियों ने उनसे खाना मांगा। माता ने थोड़ा सब्र करने के लिए कहा, लेकिन वे भूख से तड़पने लगीं। सहेलियों के बार-बार आग्रह करने पर माता ने खड्ग से खुद अपना ही सिर काट दिया। कटा हुआ सिर मां के बाएं हाथ में आ गिरा। ऐसे में मां के गले से रक्त की तीन धाराएं बहने लगीं। गले से निकली दो धाराओं को मां ने अपनी सहेलियों की ओर मोड़ दिया और बाकी बची एक धारा को वह खुद पीने लगीं। उसी दिन से मां के इस स्वरूप को मां छिन्नमस्तिका के रूप में पूजा जाने लगा। पढ़ें इसे भी : सुख-समृद्धि की हो कामना तो नवरात्र के नौ रंगों से करें देवी को प्रसन्नहर रोज दी जाती है सौ-दो सौ बकरों की बलि


मंदिर के पुजारी बताते हैं कि यहां हर साल बड़ी संख्या में साधू, महात्मा समेत श्रद्धालु आते हैं। यहां अनुष्ठानों के बारे में उन्होंने बताया कि यहां बने 13 हवन कुंडों में विशेष अनुष्ठान कर सिद्धी प्राप्त की जाती है। बताया जाता है कि मंदिर का मुख्य द्वारा पूरब की ओर खुलता है। यहां मंदिर के सामने बकरे की बलि की जगह बनी हुई है। हर रोज यहां सौ से दो सौ बकरों की बलि दी जाती है।

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Posted By: Ruchi D Sharma