बच्चे किसे प्रिय नहीं होते पर नेहरू ने अपने जन्मदिन को उनकी मासूमियत और मीठेपन के भीतर छिपी हुई नेतृत्व और निर्माण क्षमता के उत्सव के रूप में मनाया.

'...मैंने एक बार पंडित जी से कह दिया आपमें चर्चिल भी है और चेंबरलेन भी है, वे नाराज नहीं हुए. शाम को किसी बैंक्वेट में मुलाकात हो गई तो कहने लगे, आज तो बड़ा जोरदार भाषण दिया और हंसते हुए चले गए. आजकल ऐसी आलोचना करना दुश्मनी को दावत देना है.’ ये शब्द हैं अटल बिहारी वाजपेयी के, जब वे संसद में पंडित नेहरू के बारे में बता रहे थे. सब जानते हैं कि जब नेहरू जी प्रधानमंत्री थे, तब कितने युवा होंगे अटल जी और कितना कमजोर था विपक्ष, पर अपनी आलोचना को, वह कितनी भी तीखी क्यों न हो, स्वीकार कर लेना पंडित जी का अद्भुत गुण था.

नेहरू के कार्य से प्रेरणा

विपक्ष का एक युवा नेता देश के सबसे बड़े नेता से संसद में उत्तर मांगता है और प्रधानमंत्री शालीनता से, सम्मान से उसे उसकी बात रखने का मौका देते हैं. यह स्वतंत्रता ही लोकतंत्र का मौलिक गुण है. आलोचना चाहे वह सही हो, गलत हो उसे आगे बढ़कर स्वीकारना नेतृत्व की परिभाषा है. पंडित जी स्वयं नेतृत्व की ऐसी ही परिभाषा थे. संसद में रहकर उनका विरोध करने वाले अटल जी ने स्वयं बताया था कि उन्होंने कैसे नेहरू जी का चित्र वापस दीवार पर लगवाया था. राजनीतिक तल्खी के दौर में नेहरू जी के काम करने का तरीका कई बार प्रेरणा बन खड़ा हो जाता है. सुभाष चंद्र बोस और पटेल से कई मुद्दों पर मतभेद के बावजूद आपसी सम्मान इसका उदाहरण है. कांग्रेस के भीतर कांग्रेस समाजवादी दल की स्थापना नेहरू ने सुभाष के साथ मिलकर की थी और पटेल सदैव नेहरू के कंधे से कंधा मिलाकर चले.

नेहरू नाम है देश के लिए एक संघर्ष का

विज्ञान में विश्वास रखने और अध्यात्म को मानने वाले नेहरू जी, जिनका आज जन्मदिन है, मात्र किताबों, चौराहों आदि के नाम में रह गए हैं. ठीक वैसे ही जैसे शास्त्री जी, सरदार पटेल और यहां तक कि राष्ट्रपिता महात्मा गांधी तक सिर्फ मूर्तियों संग्रहालयों में समेट दिए गए हैं. उससे भी दुखद यह है कि हमारे इतने महान नेता, हमारे लोकतंत्र की बुनियाद बनाने वालों को हम भूले नहीं हैं, बल्कि उन्हें इतिहास के फर्जी चश्मे से देख रहे हैं. नेहरू सिर्फ वो नहीं, जो देश के पहले प्रधानमंत्री थे. नेहरू नाम है देश के लिए एक संघर्ष का.

एक युवा की कहानी

नेहरू की कहानी भी एक युवा की कहानी है, जिसने देश के निर्माण और बापू के पीछे चलने के लिए वकालत का काम नहीं किया, जबकि उनके पिता उच्चस्तर के वकील थे. नेहरू ने जेल का जीवन चुना, लाठी चुनी. पहले देश की आजादी के लिए और फिर आजाद देश को संवारने में योगदान दिया. नेहरू ने नींव रखी एक ऐसे लोकतंत्र की, जो स्वतंत्र है. जहां गलती करने की भी स्वतंत्रता है. आजाद होते ही उन्होंने विज्ञान, शिक्षा और कला को सर्वोपरि स्थान दिया. आईआईटी, आईआईएम, एम्स आदि का निर्माण हो या इसरो जैसी संस्था का, भाकरा जैसे बांध हों या भिलाई जैसे स्टील प्लांट, नेहरू ने जो दिशा दी, वह आज भी उनकी दूरदर्शिता की मिसाल है. नाट्य कला, संगीत कला अकादमी हो या पुरस्कारों की स्थापना, नेहरू की दृष्टि हर क्षेत्र पर थी.

उन्हें पता था कि राष्ट्र का औद्योगिक/सामाजिक/कलात्मक विकास कैसे होगा. आजादी के बाद प्रदेशों के पुनर्गठन से लेकर राष्ट्र की अर्थव्यवस्था के पुनर्गठन तक ऐसे कई काम हैं जिनमें पंडित जी उलझे रहे, जब तक वे जीवित थे. आजादी के बाद आर्थिक नीतियों में मिश्रित अर्थव्यवस्था का आधार नेहरू महालनोबिस मॉडल ही था. पंडित जी के विचारों का भावार्थ लें तो 'भारत माता’ भारत की संपदा, भारत के लोग, भारत की संस्कृति ही तो है, जिसकी जय हम बोलते हैं. यही तो है धर्म, यही देशभक्ति भी है.

जिज्ञासु हिंदू थे पंडित जी

बड़े हास्यप्रद हैं वे प्रश्न, जो पंडित जी को हिंदू विरोधी कहते हैं. राजनीति में यह नया चलन है. इंटरनेट खासतौर से व्हॉट्सएप बेसिर-पैर की बातों से पटा पड़ा है. नेहरू जी स्वामी विवेकानंद से प्रभावित थे. मठ से उनका जुड़ाव भी रहा. उन पर पुस्तक भी लिखी. वे स्वयं को जिज्ञासु हिंदू कहते थे. वे गंगा को भारत की संस्कृति मानते थे. वे एक अंग्रेज अफसर पर इसलिए नाराज हो गए थे कि उसने गंगा को गैंगेज लिख दिया था. उनके अनुसार यह गंगा का अपमान था. अपनी मृत्यु पर भी वे गंगा में बह जाने का मोह अपनी वसीयत में लिखकर गए ताकि संगम से वे दूर न हों. नेतृत्वकर्ता का सबसे बड़ा धर्म होता है राष्ट्रसेवा. आज जब देश में धर्म पर, राजनीति के नाम पर रार मची रहती है, नेहरू जी की याद आना स्वाभाविक है. वे कभी न गोल टोपी पहने दिखते हैं, न भगवा साफा पहने. इतिहास के पन्नों में वे गांधी टोपी पहने बस आने वाली पीढिय़ों के लिए अध्यात्म, विज्ञान और संस्कृति के द्वार खोलते दिखते हैं.

नेहरू का जन्मदिन

बच्चे किसे प्रिय नहीं होते, पर नेहरू ने अपने जन्मदिन को उनकी मासूमियत और मीठेपन के भीतर छिपी हुई नेतृत्व और निर्माण क्षमता के उत्सव के रूप में मनाया. छोटी-छोटी उंगलियां ही भविष्य में बड़े काम करती हैं और सही भी तो है, गुरुदेव टैगोर कहते हैं- 'हर बच्चा अपने साथ ये उम्मीद लेकर आता है कि ईश्वर अभी मनुष्यों से निराश नहीं हुए हैं.' भगत सिंह के शब्द याद आते हैं, उनके एक प्रसिद्ध लेख 'नए नेताओं के अलग-अलग विचार' से, जो 1928 में किरती में छपा था. इसे उन्होंने नेहरू, सुभाष आदि नेताओं को सुनने के बाद लिखा था. भगत सिंह के अनुसार दोनों सच्चे देशभक्त हैं परंतु सुभाष भावुक हैं, जबकि नेहरू युगांतरकारी हैं. 'सुभाष भावुक हैं. दिल के लिए नौजवानों को बहुत कुछ दे रहे हैं, जबकि दूसरा युगांतरकारी है जो दिल के साथ-साथ दिमाग को भी बहुत कुछ दे रहे हैं.' वे इसी लेख में पंजाब से अपील भी करते हैं और एक लेख का खंडन करते हैं, जिसमें नेहरू जी के लिए लिखा गया- ऐसे युगांतरकारी दीवारों पर सिर पटक-पटक मर जाते हैं. भगत सिंह सही थे. राजनीतिक किवदंतियों भ्रांतियों के उलट सुभाष और नेहरू थे भी तो ऐसे ही. बहुत आवश्यक है कि हम जब भी अपने इन महान नेताओं की जयंती मनाएं, तो उनके दिशा-निर्देश को याद करें. चाचा नेहरू कहें या पंडित जी कहें, प्रशंसा करें या आलोचना परंतु एक काम अवश्य करें उनके जन्मदिवस को नन्हें-मुन्नों के दिन के रूप में अवश्य याद रखें.

एक किस्सा है कि एक बार एक महिला ने नेहरू का गिरेबान पकड़ लिया - वह कहने लगी, 'देश आजाद हो गया, तुम प्रधानमंत्री बन गये. मुझ बुढिय़ा को क्या मिला?’ नेहरू जी ने शांति से उत्तर दिया, 'आपको ये मिला है कि आप आज प्रधानमंत्री का गिरेबान पकड़े खड़ी हैं.’     

— मंजरी पाठक, (यह लेखिका के निजी विचार हैं)

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Posted By: Kartikeya Tiwari