चित्त में अशांति है तो तुम ध्यान करते हो। धीरे— धीरे अशांति विदा होगी शांति निर्मित हो जाएगी फिर ध्यान को मत पकड़कर बैठ जाना नहीं तो ध्यान ही अशांति पैदा करने का कारण बनेगा।

प्रश्न: जब तक वासना है, कामना है, क्या तभी तक साधना है?

स्वभावत: रोग है, तो औषधि है। स्वास्थ्य आया, औषधि व्यर्थ हुई। स्वास्थ्य में भी कोई औषधि लिए चला जाए तो घातक है। जो रोग को मिटाती है, वही रोग को फिर पैदा करेगी। मार्ग की जरूरत है, मंजिल दूर है तब तक; मंजिल आ जाए फिर भी जो चलता चला जाए, तो जो चलना मंजिल के पास लाता था, वही फिर दूर ले जाएगा। और प्रश्न महत्वपूर्ण है, क्योंकि अक्सर ऐसा ही होता है। बीमारी तो छूट जाती है, औषधि पकड़ जाती है क्योंकि मन का तर्क कहता है, जिसने यहां तक पहुंचाया, उसे कैसे छोड़ दें? जो इतने दूर ले आया, उसे कैसे छोड़ दें? अनेक यात्री मंजिल के पास पहुंचकर भी भटक जाते हैं और बहुत सी नावें किनारे के पास आकर डूब जाती हैं। यात्रा पूरी उतनी दुर्गम नहीं है, जितनी पहुंच जाने के बाद चलने की जो लंबी आदत है, उसको छोडऩा दुर्गम हो जाता है।

चित्त में अशांति है तो तुम ध्यान करते हो। धीरे— धीरे अशांति विदा होगी, शांति निर्मित हो जाएगी फिर ध्यान को मत पकड़कर बैठ जाना, नहीं तो ध्यान ही अशांति पैदा करने का कारण बनेगा। अंधेरे में भटकते हो, किसी कल्याण मित्र का हाथ पकड़ा, फिर रोशनी आ जाए, सुबह हो जाए, तो अब हाथ को पकड़े ही मत रह जाना। हाथ को छोडऩा भी आना चाहिए। इसलिए सदगुरु की परिभाषा समझो। सदगुरु की परिभाषा यह है कि जो एक क्षण भी जरूरत से ज्यादा तुम्हारे हाथ को न पकड़े रहे। सदगुरु वही है, जब तुम पकड़ना नहीं चाहते, पकड़ा दे; और जब तुम छोड़ना नहीं चाहते, तब छुड़ा दे। साधना का कोई अर्थ नहीं है फिर। कांटे की तरह है साधना—एक कांटे को निकाल लिया, दूसरे को भी साथ ही फेंक दिया। तुम कोई सदा—सदा के लिए साधक मत बन जाना। मार्ग की बात है, उपाय है; साधन है, साध्य नहीं है। साध्य जैसे ही करीब आने लगे, वैसे ही साधन से अपने हाथ छुड़ाना शुरू कर देना।

'प्रकृति का नियम यही है एक कि अति का होगा ही विध्वंस।Ó एक अति है वासना कि खो गए, भटक गए—संसार में, व्यर्थ में, बाजार में। फिर एक दूसरी अति है कि बचाने में लग गए अपने को—संसार से, व्यर्थ से, बाजार से। यह दोनों अतियां हैं। इन दोनों में कहीं भी समत्व नहीं है। जरूरी है साधना, क्योंकि एक अति पर चले गए तो दूसरी अति पर जाना जरूरी हो गया है, लेकिन जैसे ही एक अति कट जाए, दूसरी अति भी तत्क्षण छोड़ देना; अन्यथा घड़ी के पेंडुलम की तरह घूमते रहोगे। संसार में चलना तनी हुई रस्सी पर चलने जैसा है। प्रतिक्षण तुम्हें झुकना ही पड़ेगा। अभी प्रेम, अभी घृणा; अभी सहानुभूति, अभी क्रोध; यह दाएं—बाएं है। मेरे पास प्रेमी आते हैं; वे पूछते हैं कि कैसे यह घटना घटे कि हम जिससे प्रेम करते हैं, उस पर क्रोध न करें?

मैं कहता हूं- यह न हो सकेगा। इसके लिए तो संसार की रस्सी से उतरना पड़ेगा। यह तो संसार की रस्सी पर तुम प्रेम करोगे तो क्रोध करना ही पड़ेगा क्योंकि प्रेम में ज्यादा झुके, गिरने का डर हो जाता है; क्रोध की तरफ मुड़े, संभल गए। क्रोध में भी ज्यादा झुकोगे तो डर हो जाएगा, तो फिर पत्नी के लिए फूल खरीद लाए। तो जिससे तुम प्रेम करोगे, उससे ही घृणा भी करते रहोगे और जिससे तुम्हारे मन का लगाव है, उससे ही तुम राग भी रखोगे, उससे ही दुश्मनी भी चलती रहेगी। आशा—निराशा, उजाला—अंधेरा, मित्रता— शत्रुता—ऐसे हम रस्सी पर सधे रहते हैं। जानना तो तुम उस दिन भूमि मिली, जिस दिन न भोग रह जाए, न योग रह जाए; न वासना रह जाए, न साधना रह जाए; न प्रेम रह जाए, न घृणा रह जाए; न क्रोध रह जाए, न अक्रोध रह जाए; सारे द्वंद्व खो जाएं तो तुम उतर आए। वही है मुक्ति की भूमि। वही है मुक्ति का आकाश। स्वर्ग और नर्क, जब तुम दोनों से नीचे उतर आए, तब है मोक्ष की भूमि। स्वर्ग और नर्क के बीच खिंची है रस्सी; उसी रस्सी पर चल रहा है संसार। साधन से भी आदमी की आसक्ति बन जाती है। तुम अगर प्रतिमा बना लेते हो मन में तो उसे छोडऩा मुश्किल हो जाएगा। तुमने अगर ध्यान किया, ध्यान छोडऩा मुश्किल हो जाएगा।

प्रार्थना की, प्रार्थना छोडऩी मुश्किल हो जाएगी और ध्यान रखना, छोडऩा तो पड़ेगा ही क्योंकि ये उपचार थे, इन्हें किसी कारण से पकड़ा था। इनके पकडऩे की शर्त ही खो गई। यह ऐसे ही है, जैसे कोई नया मकान बनाता है तो एक ढांचा खड़ा करता है, ढांचे के सहारे मकान बना लेता है फिर ढांचा गिरा देता है। अब तुम्हारा ढांचे से मोह हो जाए और तुम उसे न गिराओ तो तुम्हारा भवन रहने योग्य न हो पाएगा। ढांचा रहने न देगा। इसलिए साधना का उपयोग कर लेना, लेकिन साधना के हाथ में मिलकियत नहीं देनी है।

ओशो

 

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Posted By: Kartikeya Tiwari