पुरी दुनिया में संगीत की एक लंबी परंपरा रही है. भारत में भी तानसेन और बैजु बावरा से ले लेकर ए आर रहमान तक एक से एक संगीतकार पैदा हुए हैं. अगर थोड़ा और पीछे चला जाए तो कृष्ण की बांसुरी को भला कौन भुला सकता है.


उसी तरह पश्चिमी देशों में भी शास्त्रीय संगीत से लेकर आधुनिक जैज़ और रॉक एन रॉल तक संगीत जीवन का एक अभिन्न अंग रहा है. आप सोचते होंगे कि संगीत की इन ऊचाईंयों को छूने के लिए संगीतकार की विशेष प्रतिभा की जरूरत पड़ती होगी.लेकिन अब इस सोच को चुनौती दी जा रही है.लंदन के इंपीरियल कॉलेज के वैज्ञानिकों ने दावा किया है कि उन्होंने एक ऐसा कंप्यूटर प्रोग्राम तैयार किया है जो आपकी मन चाही धुन बना सकता है यानी कि अब संगीत की धुनों के लिए संगीतकारों की ज़रूरत नहीं पड़ेगी.इंपीरियल कॉलेज के वैज्ञानिक प्रोफेसर अर्मंड लेरोए और बॉब मैक्कलम ने मिलकर इस कंप्यूटर प्रोग्राम को बनाने का दावा किया है जिसे उन्होंने 'डार्विन ट्यून्स' का नाम दिया है.कंप्यूटर संगीत
कॉलेज में जीव-विज्ञान के अध्यापक अर्मंड लेरोए कहते हैं कि अगर आपको ये लगता है कि संगीत की धुन बनाने के लिए संगीतकार का होना ज़रूरी है तो ऐसा नहीं है.


लेरोए के अनुसार, ''आम तौर पर हम ऐसा नहीं सोचते कि संगीत का धीरे-धीरे विकास होता है. लेकिन वास्तविकता ये है कि हर संगीत का एक इतिहास होता है, एक परंपरा होती है. चाहे आप कॉगों का संगीत सुनें या अफ़्रीक़ा के कालाहारी रेगिस्तान में रहने वाले जनजातियों का संगीत सुनें दोनों में बहुत समानता है. उनकी परंपरा बहुत गहरी है. उनका भी विकास उसी तरह होता है जिस तरह जीव-विज्ञान के अनुसार मानव का विकास हुआ है.'''डार्विन टयून्स' परियोजना में शामिल दूसरे वैज्ञानिक बॉब मैक्कलम के अनुसार वे लोग आवाज से संगीत पैदा करने की कोशिश कर रहे हैं.बॉब कहत हैं, ''हम बहुत ही अनियमित तरीके से किसी आवाज को चुनते हैं और उनसे पैदा होने वाली धुन या आवाज को लोगों को सुनाते हैं. ज्यादा लोग जिसे पसंद करते हैं उसे रखते हैं और शेष को छोड़ देते हैं.''इंपीरियल कॉलेज के वैज्ञानिक प्रोफेसर अर्मंड लेरोए और बॉब मैक्कलम ने मिलकर इस कंप्यूटर प्रोग्राम को बनाने का दावा किया है जिसे उन्होंने 'डार्विन ट्यून्स' का नाम दिया है.कंप्यूटर संगीतकॉलेज में जीव-विज्ञान के अध्यापक अर्मंड लेरोए कहते हैं कि अगर आपको ये लगता है कि संगीत की धुन बनाने के लिए संगीतकार का होना ज़रूरी है तो ऐसा नहीं है.

लेरोए के अनुसार, ''आम तौर पर हम ऐसा नहीं सोचते कि संगीत का धीरे-धीरे विकास होता है. लेकिन वास्तविकता ये है कि हर संगीत का एक इतिहास होता है, एक परंपरा होती है. चाहे आप कॉगों का संगीत सुनें या अफ़्रीक़ा के कालाहारी रेगिस्तान में रहने वाले जनजातियों का संगीत सुनें दोनों में बहुत समानता है. उनकी परंपरा बहुत गहरी है. उनका भी विकास उसी तरह होता है जिस तरह जीव-विज्ञान के अनुसार मानव का विकास हुआ है.'''डार्विन टयून्स' परियोजना में शामिल दूसरे वैज्ञानिक बॉब मैक्कलम के अनुसार वे लोग आवाज से संगीत पैदा करने की कोशिश कर रहे हैं.बॉब कहत हैं, ''हम बहुत ही अनियमित तरीके से किसी आवाज को चुनते हैं और उनसे पैदा होने वाली धुन या आवाज को लोगों को सुनाते हैं. ज्यादा लोग जिसे पसंद करते हैं उसे रखते हैं और शेष को छोड़ देते हैं.''

Posted By: Surabhi Yadav