समलैंगिकता के मुद्दे पर बुधवार को सुप्रीम कोर्ट में चली बहस के दौरान कोर्ट ने एक सवाल उठाया.

आखिर ‘अप्राकृतिक सेक्स’ की परिभाषा क्या है? कौन वो विशेषज्ञ है जो तय करेगा कि इस प्रकिया को कुदरत के ख़िलाफ़ माना जाए या स्वाभाविक माना जाए?

जस्टिस जीएस सिंघवी और एसजे मुखोपाध्याय की खंडपीठ ने ऐसा सवाल उठाया है जिसने कई और सवालों को जन्म दे दिया है और एक नई बहस छेड़ दी है।

दरअसल, साल 2009 में दिल्ली हाई कोर्ट ने एक महत्तवपूर्ण फ़ैसले में कहा था कि दो मर्द या औरत अगर अपनी सहमति से बंद कमरे के भीतर समलैंगिक यौन संबंध बनाते हैं तो ये अपराध नहीं है।

हाई कोर्ट की इस घोषणा से पहले भारतीय दंड संहिता की धारा 377 के तहत ऐसे संबंध बनाए जाने पर कड़ी सजा का भी प्रावधान था। लेकिन हाई कोर्ट के फ़ैसले ने 2009 में इस क़ानून को बदलने का आदेश दिया था।

इस आदेश को चुनौती देते हुए दिल्ली कमिशन फॉर प्रोटेक्शन ऑफ़ चाइल्ड राइट्स ने कहा कि समलैंगिक रिश्ते बनाना कुदरत के ख़िलाफ़ है और इसे आपराधिक जुर्म करार दिया जाना चाहिए।

‘निर्रथक बहस’इस पूरे विवाद पर समलैंगिकों के अधिकारों के लिए काम करने वाले शशि भूषण का कहना है कि अप्राकृतिक सेक्स को किसी परिभाषा तक सीमित करने की कोई ज़रूरत नहीं है।

इस पूरे विवाद को फ़िज़ूल बताते हुए उन्होंने कहा, “वेदों में कहा गया है कि जो चीज़ अप्राकृतिक है, वो प्राकृतिक भी है। सेक्स को किसी परिभाषा की भी ज़रूरत नहीं है। बृह्मांड में जितनी भी चीज़ें हैं, उनमें से किस-किस को आप प्राकृतिक या अप्राकृतिक कहेंगें? मुझे लगता है कि अब हमें इस मुद्दे से आगे बढ़ कर बात करनी चाहिए। जो चीज़ समाज के लिए प्राकृतिक है, समलैंगिक व्यक्ति के लिए वही चीज प्राकृतिक है। तो ऐसे में बहस की गुंजाइश ही नहीं है.”

बीबीसी से बातचीत में शशि भूषण ने कहा कि जितनी भी ‘कुदरती’ प्रक्रियाएं हैं या मानव का स्वभाव है, या यौन प्राथमिकता है, या फिर लैंगिक पहचान है, वो सब प्राकृतिक ही हैं।

वहीं जब दिल्ली के कुछ युवा छात्रों को ‘अप्राकृतिक सेक्स’ की परिभाषा देने के लिए कहा गया, तो मिली-जुली प्रतिक्रियाएं मिली। लेकिन ज़्यादातर छात्रों का मानना था कि उन्हें समलैंगिकों से तब तक कोई दिक्कत नहीं है, जब तक वे अपने प्यार को चारदीवारी के भीतर रखें।

आगे बढ़ता भारत?

सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि भारत को आज़ाद हुए 60 साल से ज़्यादा हो चुके हैं और आज के ज़माने में जब बच्चे टेस्ट ट्यूब और किराए की कोख से पैदा किए जाते हैं, तो ऐसे में क्या इन आधुनिक प्रयोगों को भी कुदरत के ख़िलाफ़ करार दे दिया जाए? इसके जवाब में दिल्ली कमिशन फॉर प्रोटेक्शन ऑफ़ चाइल्ड राइट्स के वकील ने कहा कि कुदरत वक्त के साथ नहीं बदलती।

अप्राकृतिक सेक्स की परिभाषा को लेकर उच्चतम न्यायालय में चल रही इस बहस के बीच भारतीय सरकार का रुख़ अब तक साफ़ नहीं है। गौरतलब है कि पिछले साल स्वास्थय मंत्री ने समलैंगिकता को एक 'रोग' क़रार दिया था और इस चलन को 'अप्राकृतिक' बताया था।

सरकार के अस्पष्ट रुख़ की आलोचना करते हुए शशि भूषण ने कहा, “2009 में हाई कोर्ट के फ़ैसले के बाद भी सरकार का रुख़ समलैंगिकता के मुद्दे पर साफ़ नहीं हो पाया है। ये ज़रूर है कि वक्त-वक्त पर राजनेताओं के ऐसे बयान सामने आते रहे हैं, जिसमें उन्होंने समलैंगिकता को एक बाहर से आई बीमारी का नाम दिया है। शायद वो लोग ये भूल जाते हैं कि भारत कामसूत्र का देश रहा है और कामसूत्र की किताबों में कई अध्याय ऐसे हैं जिसमें समलैंगिकता पर विस्तार से चर्चा की गई है.”

शशि भूषण का कहना है कि समलैंगिकों को सुप्रीम कोर्ट से उम्मीद है कि वो इस पूरे विवाद को एक सुलझा हुआ समाधान देगा ताकि समलैंगिकों की पहचान से जुड़े कुछ सवालों का जवाब मिल सके।

Posted By: Inextlive