Varanasi : वैसे तो किसी महिला की गोद में किलकारी भरना ऊपर वाले के हाथ में होता है लेकिन कई बार उसकी ये चाहत पूरी नहीं हो पाती. ऐसे में इस उम्मीद को जगाने का काम करतीं हैं अपने बनारस की डायनमिक डॉक्टर इंदू सिंह. डॉ. इन्दू का इस मुकाम तक पहुंचना इतना आसान नहीं था. इलाहाबाद के एक टीचर के घर पैदा हुईं इंदू की फैमिली में कोई भी डॉक्टर नहीं था. मां हाउस वाइफ थीं. पर बुलंद इरादों ने उन्हें एक अच्छा डॉक्टर बना दिया.


मेहनत से न करें गुरेज डॉ। इंदू सिंह बताती हैं कि रास्ते भले कांटों भरे हों लेकिन अगर आपके अंदर हिम्मत हो और आप मेहनत से गुरेज न करें तो मंजिल तक पहुंचा जा सकता है। 1990 में प्रतापगढ़ से अपने कॅरियर की नींव रखने वाली डॉ। इंदू को भी मंजिल तक पहुंचने में कई उतार चढ़ाव देखने पड़े। 1991 में संजीवनी नर्सिंग होम, कोदई चौकी से इंफर्टिलिटी पर सही मायने में वर्क स्टार्ट किया। सिंगापुर, लंदन, कैंम्ब्रीज में जाकर इस टेक्नीक की ट्रेनिंग ली और फिर आईवीएफ टेक्नीक से लैस हॉस्पिटल को अमली जामा पहनाया। फैमिली को था यकीन


अपने बीते दिन याद कर इंदू बताती हैं कि उन दिनों बेटियों का घर से निकलना बहुत मुश्किल था। लेकिन सौभाग्य से हमारे घर में ऐसी बात नहीं रही। बेटों के साथ ही बेटियों को भी पूरी आजादी रही। सभी को अपना कॅरियर चुनने का पूरा फ्रीडम था। इसी का नतीजा रहा कि हिस्ट्री के एक प्रोफेसर की बेटी ने मेडिकल साइंस का रास्ता चुना। इसमें मेरे पापा का पूरा सपोर्ट रहा। वो बेटों की तरह मुझ पर भी गर्व करते थे। यही वजह है कि मैंने उनके भरोसे का मान रखा और उन्हीं के नाम पर बनायी संस्था के बैनर तले हॉस्पिटल की नींव रखी। डॉ। इंदू ने बताया कि धीरे धीरे समय गुजरता गया और मैं बस अपने लक्ष्य के साथ आगे बढ़ती गयी। 1974 में एमएलएनआर में एमबीबीएस में एडमिशन हो गया। कोर्स कंप्लीट होते ही 1979 में शादी हो गयी और बनारस चली आयी। नहीं भटकी मकसद से जिस तरह से हर मां बाप अपनी बेटी का हाथ पीला करने के लिए बेताब रहते हैं वैसा मेरे साथ भी हुआ। इंजीनियर अरुण सिंह से मेरी शादी हो गयी। इसके बाद भी मेरी पढ़ाई बंद नहीं हुई। यहां आकर बीएचयू के एमडी कोर्स में एडमिशन ले लिया। 1983 में पासआउट हो गयी। इसी बीच मेरी पहली बेटी का 1981 में जन्म हुआ। अब मैंने प्रैक्टिस स्टार्ट कर दिया था। इसी बीच बेटा और फिर एक बेटी का जन्म हुआ। बच्चों और फैमिली की जिम्मेदारी के बावजूद मैंने अपने मकसद को नहीं छोड़ा। सोच को दिया आकार

होश संभालने के बाद जो सपने देखा करती थी उसे आकार देने में वक्त तो लगा लेकिन अब वो दूर नहीं हैं। उन दिनों जब आईवीएफ के बारे में गिने चुने लोग जानते थे ऐसे में इस पर काम करना किसी चैलेंज से कम नहीं था। लेकिन खुद की पढ़ाई और विदेशों में ली गयी ट्रेनिंग ने हमेशा आगे बढऩे के लिए प्रेरित किया। जिसका परिणाम रहा कि मेरे मैरेज एनिवर्सरी के दिन एक मार्च 2000 को सूर्या मेडिटेक में पहले टेस्ट ट्यूब बेबी का जन्म हुआ। इसके बाद तो पीछे मुड़कर नहीं देखा। फिर 2002 में जीवी मेडिटेक कंपनी बनाया। जिसके बैनर तले शुरु हुआ सफर आज तक जारी है। हॉस्पिटल में अब तक 500 आईवीएफ बच्चे पैदा हो चुके हैं। 2013 में सूर्या सुपर स्पेशिएलिटी हॉस्पिटल की शुरुआत भी बड़ी सफलता में शामिल है। साबित होगा वरदान कभी पीछे मुड़कर न देखने वाली डॉ। इंदू सिंह का सफर पूरे जोश और खरोश के साथ जारी है। सूनी गोद में खुशियों के फूल खिलाने वाली इंदू सिंह का बनारस में वेल स्टेब्लिश्ड हार्ट व कैंसर हॉस्पिटल बनाने का सपना है। जल्द ही मैक्स हार्ट कमांड सेंटर की शुरुआत हो जाएगी। वैसे कैंसर हॉस्पिटल लगभग आकार ले चुका है।

Posted By: Inextlive