निर्णय का अर्थ है कि कोई द्वंद्व था तुम्हारा एक हिस्सा कह रहा था कि 'ऐसा करो’ और एक हिस्सा कह रहा था कि 'ऐसा मत करो’ इसीलिए निर्णय की जरूरत पड़ी।

प्रश्न: यदि एक बुद्ध पुरुष के भीतर परिपूर्ण शून्यता ही है तो ऐसा कैसे प्रतीत होता है कि वह निर्णय ले रहा है, चुनाव कर रहा है, पसंद-नापसंद का भेदकर रहा है, हां या न कह रहा है?

यह विरोधाभासी लगेगा। एक बुद्ध पुरुष यदि मात्र शून्यता ही है तो बात हमारे लिए विरोधाभासी हो जाती है फिर वह हां या न कैसे कहता है? फिर वह चुनाव कैसे करता है? फिर वह किसी चीज को पसंद और नापसंद कैसे करता है? वह बोलता कैसे है? वह चलता कैसे है? वह कैसे जीवित है? हमारे लिए यह कठिनाई है; लेकिन बुद्ध पुरुष के लिए कोई कठिनाई नहीं है, सबकुछ शून्यता से होता है, बुद्ध पुरुष चुनाव नहीं करता। हमें यह चुनाव लगता है, लेकिन बुद्ध पुरुष बस सीधे एक दिशा में चलता है। वह दिशा शून्य से ही उठती है।

यह ऐसे ही है जैसे तुम टहल रहे हो, और अचानक तुम्हारे सामने एक कार आ जाती है और तुम्हें लगता है कि दुर्घटना हो जाएगी। तुम फिर निर्णय नहीं लेते कि क्या करना है। क्या तुम निर्णय लेते हो? निर्णय तुम कैसे ले सकते हो? तुम्हारे पास समय ही नहीं है। निर्णय लेने में समय लगता है। तुम्हें सोच-विचार करना पड़ेगा, नापना-तौलना पड़ेगा, कि इस तरफ कूदना है या उस तरफ। नहीं, तुम निर्णय नहीं लेते, बस छलांग लगा देते हो। यह छलांग कहां से आती है? तुम्हारे और छलांग के बीच कोई विचार प्रक्रिया नहीं है। बस अचानक तुम्हें पता चलता है कि कार तुम्हारे सामने है और तुम छलांग लगा देते हो। छलांग पहले लगती है सोचते तुम बाद में हो, उस क्षण तुम उसी शून्यता से कूद पड़ते हो। तुम्हारा पूरा अस्तित्व बिना निर्णय के छलांग लगा देता है।

याद रखो, निर्णय सदा अंश का ही हो सकता है, पूर्ण का नहीं। निर्णय का अर्थ है कि कोई द्वंद्व था, तुम्हारा एक हिस्सा कह रहा था कि 'ऐसा करो’ और एक हिस्सा कह रहा था कि 'ऐसा मत करो’ इसीलिए निर्णय की जरूरत पड़ी। तुम्हें निर्णय करना पड़ा, तर्क-वितर्क करना पड़ा और एक हिस्से को दबाना पड़ा। निर्णय का यही अर्थ होता है। जब तुम्हारी पूर्णता प्रकट होती है तो निर्णय की जरूरत नहीं होती, कोई और विकल्प ही नहीं होता। एक बुद्ध पुरुष स्वयं में पूर्ण होता है, पूर्णतया शून्य होता है। तो जो भी होता है उस पूर्णता से आता है, किसी निर्णय से नहीं। यदि वह ही कहता है तो वह कोई उसका चुनाव नहीं है: उसके सामने 'न’ कहने का कोई विकल्प ही नहीं था।'हां’ उसके पूरे अस्तित्व का प्रतिसंवेदन है। यदि वह 'न’ कहता है तो 'न’ उसके पूरे अस्तित्व का प्रतिसंवेदन है।

यही कारण है कि बुद्ध पुरुष कभी पश्चात्ताप नहीं कर सकता। तुम सदा पश्चात्ताप करोगे। तुम जो भी करो, उससे कोई अंतर नहीं पड़ता, तुम जो भी करो, पछताओगे। क्योंकि तुम जो भी निर्णय लेते हो वह आंशिक निर्णय है, दूसरा हिस्सा सदा ही उसके विरुद्ध रहता है। बुद्ध पुरुष कभी नहीं पछताता। सच में तो वह कभी पीछे मुड़कर देखता ही नहीं। पीछे देखने को कुछ है ही नहीं। जो भी होता है उसकी समग्रता से होता है।

तो पहली बात समझने की यह है कि वह कभी चुनाव नहीं करता। चुनाव उसके शून्य में घटता है; वह कभी निर्णय नहीं करता। इसका यह अर्थ नहीं है कि वह अनिर्णय में होता है। वह पूर्णत: निश्चित होता है लेकिन कभी निर्णय नहीं करता। मुझे समझने की कोशिश करो। निर्णय उसके शून्य में घटित होता है। यही उसके पूरे प्राणों की आवाज है। वहां और कोई स्वर नहीं होता। यदि तुम कहीं जा रहे हो और तुम्हारे रास्ते में सांप आ जाता है तो तुम अचानक छलांग लगाकर हट जाते हो बस इतना ही। तुम कोई निर्णय नहीं लेते। वह छलांग तुम्हारे पूरे अस्तित्व से आ रही है। तुम्हें ऐसा लगता है कि बुद्ध पुरुष चुनाव कर रहा है, निर्णय ले रहा है, क्योंकि तुम हर क्षण यही कर रहे हो और जिस बात का तुम्हें पता ही न हो वह तुम समझ नहीं सकते। एक बुद्ध पुरुष बिना निर्णय के, बिना प्रयास के, बिना चुनाव के सबकुछ करता है वह चुनाव-रहित जीता है। मूढ़-मन निर्णय करते हैं; बुद्ध मन बस कृत्य करते हैं। और जो मन जितना ही मूढ़ होगा उसे निर्णय करने में उतनी ही मुश्किल होगी। चिंता का यही अर्थ है। चिंता क्या है? दो विकल्प हैं और दोनों के बीच चुनाव का कोई उपाय नहीं है, और मन कभी इधर जाता है, कभी उधर जाता है-यही चिंता है।

ओशो

विपरीत ध्रुवों का मिलन है हमारा अस्तित्व

प्रेम और घृणा के बीच होना चाहिए संतुलन

Posted By: Kartikeya Tiwari