ज्येष्ठ शुक्ल दशमी को हस्त नक्षत्र में स्वर्ग से गंगा का आगमन हुआ था। यह तिथि उनके नाम पर गंगा दशहरा के नाम से प्रसिद्ध हुई।


भारतीय संस्कृति और सभ्यता को जीवन्त बनाने में यदि किसी का सर्वाधिक योगदान है तो वह हैं गंगा नदी। यह गंगा नदी न केवल हमारे ही देश की सबसे पवित्र नदी हैं अपितु विश्व की सर्वश्रेष्ठ नदियों में अपने विशिष्ट गुणों के कारण सर्वप्रथम स्थान रखती हैं। जिस प्राचीन भारतीय सभ्यता और संस्कृति की चर्चा करते हुए आज भी हम अपने गौरवपूर्ण अतीत को स्मरण करते हैंए उस सभ्यता को सर्वलोकोपकारी बनाने में गंगा जी की लहरों ने ही मानव हृदय को मंगलमयी प्रेरणा दी थी। हमारे इस विशाल देश में गंगा की निर्मल धारा प्राचीन काल से ही अपना महत्वपूर्ण स्थान रखती है। हिन्दुओं के लिए तो यह धरती पर बहकर भी आकाशवासी देवताओं की नदी है और इस लोक की सुख समृद्धियों की विधात्री होकर भी परलोक का सम्पूर्ण लेखा जोखा सँवारने वाली हैं।


गंगा जी केवल शारीरिक एवं भौतिक सन्तापों को ही शान्त नहीं करती अपितु आन्तरिक एवं आध्यात्मिक शान्ति को भी प्रदान करती हैं। अखिल ब्रह्माण्ड व्यापक जग के विधाता पोषक एवं संहारक ब्रह्मा एवं शंकर जी तथा विष्णु के द्रव रूप में भागीरथी हिन्दूओं के मानस पटल पर ऐसा प्रभाव डालती हैं कि कोई भी हिन्दू गंगा जी को न तो नदी के रूप में देखता है और न किसी के मुख से यह सुनना चाहता है कि गंगा जी नदी है। उसकी तो यह अन्तिम इच्छा होती है कि मृत्यु के समय उसके मुख में एक बूँद भी गंगा जल चला जाय तो उसका मानव जीवन सफल हो जायेगा। भगवान् श्रीराम का जन्म अयोध्या के सूर्यवंश में हुआ था। उनके एक पूर्वज थे महाराज सगर।महाराज सगर चक्रवर्ती सम्राट थे। उनकी केशनी और सुमति नाम की दो रानियाँ थीं। केशनी के पुत्र का नाम असमञ्जस था और सुमति के साठ हजार पुत्र थे। असमञ्जस के पुत्र का नाम अंशुमान् था। राजा सगर के असमञ्जस सहित सभी पुत्र अत्यन्त उद्दण्ड और दुष्ट प्रकृति के थे, परन्तु पौत्र अंशुमान् धार्मिक और देव-गुरुपूजक था। पुत्रों से दुखी होकर महाराज सगर ने असमञ्जस को देश से निकाल दिया और अंशुमान् को अपना उत्तराधिकारी बनाया । सगर के अन्य साठ हजार पुत्रों से देवता भी दुखी रहते थे।

एक बार महाराज सगर ने अश्वमेधयज्ञ का अनुष्ठान किया और उसके लिए घोड़ा छोड़ा। इन्द्र ने अश्वमेधयज्ञ के उस घोड़े को चुराकर पाताल में ले जाकर कपिलमुनि के आश्रम में बाँध दिया, परन्तु ध्यानावस्थित मुनि इस बात को जान न सके । सगर के साठ हजार अहंकारी पुत्रों ने पृथ्वी का कोना कोना छान मारा, परन्तु वे घोड़े को न पा सके। अन्त में उन लोगों ने पृथ्वी से पाताल तक का मार्ग खोद डाला और कपिलमुनि के आश्रम में जा पहुँचे।वहाँ घोड़ा बँधा देखकर वे क्रोधित हो शस्त्र उठाकर कपिलमुनि को मारने दौड़े। तपस्या में बाधा पड़ने पर मुनि ने अपनी आँखों खोली। उनके तेज से सगर के साठ हजार उद्दण्ड पुत्र तत्काल भस्म हो गये। गरुड के द्वारा इस घटना की जानकारी मिलने पर अंशुमान् कपिलमुनि के आश्रम में आये तथा उनकी स्तुति की। कपिलमुनि उनके विनय से प्रसन्न होकर बोले-अंशुमान्! घोड़ा ले जाओ और अपने पितामह का यज्ञ पूरा कराओ। ये सगर पुत्र उद्दण्ड, अहंकारी और अधार्मिक थे, इनकी मुक्ति तभी हो सकती है जब गंगाजल से इनकी राख का स्पर्श हो।

अंशुमान् ने घोड़ा ले जाकर अपने पितामह महाराज सगर का यज्ञ पूरा कराया। महाराज सगर के बाद अंशुमान् राजा बने, परन्तु उन्हे अपने चाचाओं की मुक्ति की चिन्ता बनी रही। कुछ समय बाद अपने पुत्र दिलीप को राज्य का कार्यभार सौंपकर वे वन में चले गये तथा गंगा जी को स्वर्ग से पृथ्वी पर लाने के लिए तपस्या करने लगे और तपस्या में ही उनका शरीरान्त भी हो गया। महाराज दिलीप नें भी अपने पुत्र भगीरथ को राज्यभार देकर स्वयं पिता के मार्ग का अनुसरण किया। उनका भी तपस्या में शरीरान्त हुआ, परन्तु वे भी गंगा जी को पृथ्वी पर न ला सके । महाराज दिलीप के बाद भगीरथ नें ब्रह्मा जी की घोर तपस्या की। अन्त में तीन पीढ़ियों की इस तपस्या से प्रसन्न हो पितामह ब्रह्मा ने भगीरथ को दर्शन देकर वर माँगने को कहा।भगीरथ नें कहा - हे पितामह! मेरे साठ हजार पूर्वज कपिलमुनि के शाप से भस्म हो गये हैं, उनकी मुक्ति के लिए आप गंगा जी को पृथ्वी पर भेजने की कृपा करें। ब्रह्मा जी ने कहा- मैं गंगा जी को पृथ्वी लोक पर भेज तो अवश्य दूँगा, परन्तु उनके वेग को कौन रोकेगा, इसके लिए तुम्हे देवाधिदेव भगवान् शंकर की आराधना करनी चाहिये।
भगीरथ नें एक पैर पर खड़े होकर भगवान् शंकर की आराधना शुरु कर दी। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान् शिव नें गंगा जी को अपनी जटाओं में रोक लिया और उसमें से एक जटा को पृथ्वी की ओर छोड़ दिया। इस प्रकार गंगा जी पृथ्वी की ओर चलीं। अब आगे -आगे राजा भगीरथ का रथ और पीछे - पीछे गंगा जी थीं। मार्ग में जह्नु ऋषि का आश्रम पड़ा, गंगा जी उनके कमण्डलु, दण्ड, आदि बहाते हुए जानें लगीं। यह देख ऋषि ने उन्हे पी लिया। कुछ दूर जाने पर भगीरथ नें पीछे मुड़कर देखा तो गंगा जी को न देख वे ऋषि के आश्रम पर आकर उनकी वन्दना करने लगे। प्रसन्न हो ऋषि ने अपनी पुत्री बनाकर गंगा जी को दाहिने कान से निकाल दिया। इसलिए देवी गंगा 'जाह्नवी' नाम से भी जानी जाती हैं। भगीरथ की तपस्या से अवतरित होने के कारण उन्हे 'भागीरथी' भी कहा जाता है।गंगा दशहरा में गंगा स्नान से दूर होते हैं दस प्रकार के पाप, जानें पूजा विधिइसके बाद भगवती भागीरथी गंगा जी मार्ग को हरा -भरा शस्य-श्यामल करते हुए कपिलमुनि के आश्रम में पहुँची, जहाँ महाराज भगीरथ के साठ हजार पूर्वज भस्म की ढेरी बने पड़े थे। गंगाजल के स्पर्श मात्र से वे सभी दिव्य रूप धारी हो दिव्य लोक को चले गये। श्रीमद्भागवत महापुराण मे गंगा की महिमा बताते हुए शुकदेव जी परीक्षित् से कहते हैं कि जब गंगाजल से शरीर की राख का स्पर्श हो जाने से सगर के पुत्रों को स्वर्ग की प्राप्ति हो गई,तब जो लोग श्रद्धा के साथ नियम लेकर श्रीगंगाजी का सेवन करते हैं उनके सम्बन्ध में तो कहना ही क्या है। क्योंकि गंगा जी भगवान के उन चरणकमलों से निकली हैं, जिनका श्रद्धा के साथ चिन्तन करके बड़े -बड़े मुनि निर्मल हो जाते हैं और तीनो गुणों के कठिन बन्धन को काटकर तुरंत भगवत्स्वरूप बन जाते हैं। फिर गंगा जी संसार का बन्धन काट दें इसमें कौन बड़ी बात है।ज्योतिषाचार्य पंडित गणेश प्रसाद मिश्र

Posted By: Vandana Sharma