इंसान टैलेंट परिश्रम और लगन से किसी एक क्षेत्र में ख़ास मुक़ाम हासिल करता है. लेकिन अगर कोई इंसान अलग-अलग क्षेत्र में हाथ डाले और उनमें अलग-अलग ख़ास मुक़ाम बनाता चले तो उन्हें हम गुलज़ार ही कहेंगे.

अगर आप गुलज़ार के काम का दायरा देखें तो यह यक़ीन नहीं होता कि एक ऐसा शख़्स है जो इतनी सारी विधाओं में लगातार काम कर रहा है. बिना थके और बिना ख़ुद को दोहराए. काम भी ऐसा कि कहीं कोई झोल नहीं. ऐसा कम ही होता है लेकिन गुलज़ार इसमें कभी चूके नहीं. पांच दशकों के लंबे अंतराल में बदलते समय और युवा पीढ़ी की उमंग, दोनों को गुलज़ार ठीक ठीक मापते रहे.

हम सबके महबूब
जिस बॉलीवुड में हर शुक्रवार को सितारे डूबते-चढ़ते हों, वहीं पांच दशक तक खूंटे जमाए रखना कोई हंसी ठठ्ठा तो नहीं ही है. यह मौजूदगी कोई कामयाबी के शिखर बनाने भर की नहीं है. बल्कि अपने आस पास की दुनिया से कुछ महसूस करके उसे क्लिक करें गुलज़ार टाइप बना देने की है. इसलिए तो गुलज़ार हम सबके महबूब हैं. उनके ही शब्दों में कहें तो 79 साल का महबूब.
ऐसा महबूब गुलज़ार एक दिन में नहीं बने. जीवन के थपेड़ों ने उनमें वो संजीदापन भरा जिसके चलते पाकिस्तान के दीना, झेलम में जन्मे संपूरण सिंह कालरा को एक ऐसे फ़नकार में तब्दील कर दिया जो तर्क और कल्पना की कसौटी पर शब्दों और दृश्यों का ऐसा तिलिस्म बुनता है जिसमें आप डूब जाना चाहते हैं.

गीतकार, लेखक और फ़िल्म निर्देशक गुलज़ार
जब वह गाने लिखने बैठते हैं तो पहला ही गाना लिखते हैं- मोरा गोरा अंग लइ ले, मोहे श्याम रंग दे दई...जिस बॉलीवुड की दुनिया में गोरे रंग की चमक-दमक कुछ ज़्यादा ही हो वहां पहले ही गाने में श्याम रंग की चाहत.
स्क्रीन प्ले लिखते हैं तो आनंद जैसी फ़िल्म..जिसका नायक हंसते-हंसते पल-पल क़रीब आती मौत के लिए तैयार नज़र आता है. फ़िल्म बनाते हैं तो वो आंधी और मौसम की शक्ल में सामने आते हैं, जहां संवेदनाओं का ज्वार अपने चरम पर नज़र आता है.
टीवी सीरियल की बात होती है तो मिर्ज़ा ग़ालिब का शाहकार सामने आता है. मिर्ज़ा ग़ालिब टीवी धारावाहिक की हैसियत कुछ वैसी है जैसे बड़े पर्दे पर मुग़ले-आज़म की मान लीजिए.
छोड़ आए हम वो गलियां..
इन सबके बीच वक़्त निकाल कर शायरी, कविताई और क़िस्सागोई में गुलज़ार अपनी चमक बिखेरते रहे. अपने आप में यह चमत्कार ही है कि अपनी तमाम रचनात्मकता का इस्तेमाल गुलज़ार एक माध्यम से दूसरे माध्यम में बख़ूबी कर लेते हैं.

इन सबके बीच अगर आप उन्हें कहीं भी किसी भी टॉपिक पर बोलने के लिए कह दें तो वे घंटों बिना किसी तैयारी के बोल सकते हैं. वो भी इस अंदाज़ में कि हज़ारों सीटों वाले  थिएटर हॉल में सन्नाटा छा जाता है. हिंदी और उर्दू की चाशनी में घुली उनकी ज़बान और उनके रेफ़रेंसेज़....बीच बीच में रह-रह कर गूंजने वाली तालियां.
 
गुलज़ार के इस सफ़र की शुरुआत तब हुई जब 1947 के बंटवारे के बाद उनका परिवार भारत आ गया और पिता घर-परिवार को चलाने के लिए छोटा-मोटा कारोबारी काम करने लगे थे. गुलज़ार बंटवारे के दौर की हिंसा को सालों तक नहीं भूल पाए. तब वे ग्यारह–बारह साल के थे. अपनी आंखों के सामने उन्होंने सैकड़ों लोगों का क़त्ल होते देखा था. लाखों लोगों को रातों रात उजड़ते भी. कच्ची उम्र के जख़्म ज़िंदगी भर नहीं जाते. गुलज़ार के अंदर भी यह पूरा हादसा किसी ख़तरनाक मंज़र की तरह उबलता रहता है, सालता रहता है.
तभी तो गुलज़ार लिखते हैं- आंखों को वीज़ा नहीं लगता, सपनों की सरहद होती नहीं, बंद आंखों से रोज़ मैं सरहद पार चला जाता हूं. माचिस फ़िल्म बनाते हैं तो उनका दर्द कुछ यूं छलक आता है-
छोड़ आए हम वो गलियां, छोड़ आए हम वो गलियां..
जहां तेरे पैरों के कंवल गिरा करते थे..
हंसे तो दो गालों में भंवर पड़ा करते थे..
तेरी कमर के बल पे नदी मुड़ा करती थी...
हंसी तेरी सुन-सुनके फ़सल पका करती थी..

फ़िल्मी दुनिया की तरफ़ रुझान
लेकिन गुलज़ार इसी दर्द से सिमटे भर नहीं रहे. वे कहते हैं, ''वक़्त के साथ समझ में आया कि कम कहने में ज्यादा तास्सुर है. ज़्यादा कहने से अर्थ डाइल्यूट हो जाते हैं.'' इसलिए यही गुलज़ार जब मस्ती के मूड में आते हैं तो बख़ूबी लिख डालते हैं- गोली मार भेजे में, भेजा साला शोर करता है.यही गुलज़ार जब प्रेम कविता लिखते हैं- तुम्हारे ग़म की डली उठा कर..ज़ुबां पर रख ली है देखो मैं ने...वह क़तरा क़तरा पिघल रही है...मैं क़तरा क़तरा ही जी रहा हूं...
बहरहाल, बचपन से गुलज़ार को कविताएं लिखने का शौक़ था. गुलज़ार के पिता का मानना था कि कविता लिखने या फिर कहानी लिखकर आजीविका नहीं चल सकती थी. लिहाज़ा वो गुलज़ार के लिए अपने नाते रिश्तेदारों से कहा करते थे, "ये भाईयों से उधार मांगेगा और गुरुद्वारा के लंगर में खाना खाएगा."
1950 में गुलज़ार अपने भाई के काम में हाथ बंटाने के लिए मुंबई आए. तब उन्होंने सोचा भी नहीं था कि एक दिन वे फ़िल्मी दुनिया में काम करेंगे. शुरू में एक मोटर गैराज में भी उन्होंने काम किया लेकिन धीरे-धीरे उनका रूझान फ़िल्मी दुनिया की तरफ़ हुआ.

 

मोहे श्याम रंग दे दई..
उन दिनों के फ़िल्मी गीतकारों में से एक राजेंद्र कृष्ण के घर पर किराएदार की हैसियत से गुलज़ार रहे. गुलज़ार वामपंथी रूझान के चलते शैलेंद्र जैसे गीतकारों के संपर्क में आए. बाद में बिमल रॉय के सहायक के तौर पर काम करने लगे थे. लेकिन लेखन की शुरुआत नहीं हो पाई.
शैलेंद्र ने ही उन्हें सबसे पहले बिमल रॉय की फ़िल्म में गाने लिखने के लिए प्रेरित किया और गुलज़ार का नाम बिमल रॉय के सहयोगी देबू सेन को सुझाया. इस तरह से 1963 में बंदिनी फ़िल्म के मोरा गोरा अंग लइ ले, मोहे श्याम रंग दई दे . गीत से गुलज़ार ने बताया कि वे यहां लंबे समय तक टिकने वाले हैं. बिमल रॉय के निधन के बाद गुलज़ार ऋषिकेश मुखर्जी के सहायक बने. ऋषिकेश मुखर्जी की फ़िल्मों के स्क्रीन प्ले और गीत ने गुलज़ार को बेहद कामयाब बनाया. इसमें आशीर्वाद, आनंद और गुड्डी जैसी बेहतरीन फ़िल्में शामिल हैं.
आनंद के लिए गुलज़ार को पहली बार फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार मिला था, लेकिन वे इतने नर्वस थे कि वे इसे लेने स्टेज पर नहीं गए. हालांकि बाद में उन्हें ये अवार्ड लेने के लिए 19 बार स्टेज पर चढ़ना पड़ा. वैसे गुलज़ार को पहले सम्मान के बाद तो अवार्ड लेने की आदत सी पड़ गई, क्योंकि उनका काम अवार्ड समारोह में पदक जीतने लायक़ ही होता था.


कामयाब प्रयोगों का दौर
ऋषिकेश मुखर्जी के सहायक के बाद गुलज़ार बतौर निर्देशक भी काफ़ी कामयाब हुए. उनकी फ़िल्मों में मेरे अपने, परिचय, कोशिश, अचानक, माचिस, और आंधी जैसी लीक से हटकर बनी फ़िल्में शामिल रही हैं.
माचिस के बाद गुलज़ार ने फ़िल्म निर्देशन को अलविदा कह दिया. गीत लिखने लगे. तो कुछ ही सालों में स्लमडॉग मिलेनियर के लिए ऑस्कर जीत लिया. 'बीड़ी जलइले' से लेकर 'दिल तो बच्चा है जी' में गुलज़ार कुछ ज़्यादा प्रयोग करते नज़र आए और इसमें ख़ासे कामयाब रहे.
हालांकि इस पूरे सफ़र में गुलज़ार पर दूसरों के नक़ल के आरोप भी ख़ूब लगे. चाहे वो 'इब्ने बतूता, पहन के जूता' वाला गाना रहा हो या फिर 'ससुराल गेंदा फूल'. ग़ालिब के शेरों का तो गुलज़ार इतना इस्तेमाल कर चुके हैं कि ख़ुद ही कहते हैं कि वो ग़ालिब के नाम की पेंशन खा रहे हैं जो ख़ुद ग़ालिब नहीं ले पाए. गुलज़ार ने लिखा है कि ग़ालिब का उधार लेना और उधार न चुका सकने के लिए बहाने तलाशना, फिर अपनी ख़फ़्ती का इज़हार करना जज़्बाती तौर पर मुझे ग़ालिब के क़रीब ले जाता है. हालांकि बार-बार उन्होंने ये साबित किया है कि वे नक़ल करने में भी ख़ूब कामयाब रहे.
गुलज़ार उम्र के आख़िरी पड़ाव में हैं तो इन दिनों अपनी तबियत का काम कर रहे हैं. कविताएं लिख रहे हैं, रविंद्रनाथ टैगोर की कविताओं का अनुवाद कर रहे हैं. तीन दशक पहले अपनी बेटी बोस्की यानी मेघना के लिए बोस्की का पंचतंत्र लिखा था, तो इन दिनों अपने नाती समय के लिए नए सिरे से पंचतंत्र लिख रहे हैं.
क्रिकेट से गहरा लगाव
इस मुक़ाम पर भी गुलज़ार के लिए कुछ चीज़ें आज भी नहीं बदली हैं. मुंबई में रहने के बाद भी गुलज़ार तड़के पाँच बजे उठ जाते हैं. कहते हैं सूर्य उन्हें जगाए उससे पहले वो सूर्य को जगाना चाहते हैं.
उठने के बाद रोज़ाना बांद्रा के जिमख़ाना क्लब में टेनिस खेले बिना गुलज़ार का दिन शुरू ही नहीं होता. टीवी पर टेनिस और क्रिकेट का मैच आ रहा हो तो गुलज़ार कोई दूसरा काम नहीं करते. वो रॉजर फ़ेडरर, आंद्रे आगासी और जान मैकनेरो जैसे सितारों के फ़ैन रहे हैं. वहीं क्रिकेट के मैदान में वे सुनील गावस्कर और वसीम अकरम के मुरीद रहे हैं. क्रिकेट से गुलज़ार का लगाव इतना गहरा है कि वे अपने सपने में कई बार ख़ुद को क्रिकेट खेलते देखते हैं.
इन ख़ासियतों के अलावा सार्वजनिक जीवन में गुलज़ार के व्यक्तित्व के दो अहम पहलू और भी हैं. वे हमेशा सफ़ेद कपड़ों में ही दिखाई देते हैं. ऐसा क्यों हैं, इसके जवाब में गुलज़ार ने नसरीन मुन्नी कबीर को दिए एक साक्षात्कार में बताया है कि जब वे किसी दूसरे रंग के कपड़े पहन लेते हैं तो लगता है कि कोई अजनबी आकर उनके कंधे पर बैठ गया है. दरअसल एक जैसे कपड़ों को पहनने की अदा को भी उन्होंने गुलज़ार टाइप कर दिया है.

तेज़ रफ़्तार की दीवानगी
इसके अलावा वो हमेशा उर्दू में ही लिखते हैं. दरअसल इसकी बड़ी व्यवहारिक समझ है कि उर्दू में लिखे होने से उनके गीत, स्क्रिप्ट को पढ़ने वाले कम लोग मिलते हैं, तो गुलज़ार का आइडिया मारना संभव ही नहीं होता.
गुलज़ार की शख़्सियत में एक ख़ास बात और है. शांत और सौम्य नज़र आने वाले गुलज़ार को तेज़ रफ़्तार से कार चलाने की आदत है और इसके लिए वे जब-तब गाड़ी लेकर लॉन्ग ड्राइव पर निकल जाते हैं.
लेकिन गुलज़ार हम सबके महबूब हैं तो अपनी गीतों के लिए, अपनी फ़िल्मों के लिए. अपनी शायरी और कविताओं के लिए. अपनी कहानियों के लिए. अपनी ज़िंदादिली के लिए. उनके सिनेमाई योगदान के लिए सबसे बड़ा सम्मान दादा साहब फाल्के पुरस्कार तो गुलज़ार को मिल गया है. अब ज़रूरत इस बात की है कि साहित्य की दुनिया सिनेमाई लेखन से अलग विभिन्न विधाओं में गुलज़ार के लेखन को गंभीरता से ले.

Posted By: Chandramohan Mishra