पिछले साल जून में भाजपा के चुनाव अभियान का जिम्मा सम्हालने के बाद नरेंद्र मोदी ने अपनी पार्टी के कार्यकर्ताओं से 'कांग्रेस मुक्त भारत निर्माण' के लिए जुट जाने का आह्वान किया था.


उस समय तक वे अपनी पार्टी की ओर से प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी नहीं बने थे. उन्होंने इस बात को कई बार कहा था.सोलहवीं  संसद के पहले सत्र में मोदी सरकार की नीतियों पर रोशनी पड़ेगी. संयुक्त अधिवेशन में राष्ट्रपति का अभिभाषण सरकार का पहला नीतिपत्र होगा. इसके बाद बजट सत्र में सरकार की असली परीक्षा होगी.एक परीक्षा कांग्रेस पार्टी की भी होगी. उसके अस्तित्व का दारोमदार भी इस सत्र से जुड़ा है. आने वाले कुछ समय में कुछ बातें कांग्रेस का भविष्य तय करेंगी. इनसे तय होगा कि कांग्रेस मज़बूत विपक्ष के रूप में उभर भी सकती है या नहीं.सबसे कमज़ोर प्रतिनिधित्व


मोदी की बात शब्दशः सही साबित नहीं हुई लेकिन सोलहवीं लोकसभा में बिलकुल बदली रंगत दिखाई दे रही है. कांग्रेस के पास कुल 44 सदस्य हैं. पार्टी उपाध्यक्ष राहुल गांधी की उम्र से एक ज्यादा. लोकसभा के इतिहास में पहली बार कांग्रेस इतनी क्षीणकाय है.देश की राजनीति में उत्तर भारत की भूमिका बढ़ी है और कांग्रेस ने ऐसे नेता को ज़िम्मेदारी दी है, जिसे हिंदी बोलने में दिक्कत होगी.

लोकसभा में संख्याबल कम होने के बावजूद पार्टी गुणवत्ता के आधार पर अपनी उपस्थिति दर्ज करा सकती है. सदन में अब उसके पास कमल नाथ, वीरप्पा मोइली, ज्योतिरादित्य सिंधिया, शशि थरूर, दीपेंद्र हुड्डा, अशोक चव्हाण और कैप्टन अमरिंदर सिंह जैसे कुछ नाम ही बचे हैं. पर अच्छी तैयारी के साथ छोटी सेना भी बड़ी लड़ाई जीत सकती है.राज्यसभा का लाभकांग्रेस के पास अभी राज्यसभा में 67 सदस्य हैं. सरकार को कई मौकों पर कांग्रेस के सहयोग की ज़रूरत होगी.वहीं पार्टी को सरकार की खिंचाई करने और अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराने के कई मौके मिलेंगे लेकिन उसके लिए वैचारिक दिशा की ज़रूरत होगी.फ़िलहाल पार्टी व्यक्तिगत नफ़े-नुकसान के आगे सोचती दिखाई नहीं पड़ती.पिछली सरकार के समय के 60 विधेयक अभी राज्यसभा में विचाराधीन हैं. दूसरी ओर लोकसभा भंग हो जाने के बाद वहाँ पेश किए गए 68 विधेयक लैप्स हो गए हैं.वहीं बिहार से सांसद मौलाना असरारुल हक़ ने चुनाव के पहले बुख़ारी-सोनिया की मुलाकात पर सवाल उठाए. हालांकि वे बाद में अपनी बात पर क़ायम नहीं रहे, लेकिन चोट लग चुकी थी.

बुख़ारी को लेकर  दिग्विजय सिंह ने सार्वजनिक रूप से कहा कि शाही इमाम सैयद अहमद बुख़ारी 'सांप्रदायिक व्यक्ति' हैं. उनकी इस राय से ज़्यादा महत्वपूर्ण है सार्वजनिक रूप से ऐसी राय व्यक्त करना, जिससे नेतृत्व को चोट लगे. महाराष्ट्र मे नारायण राणे जैसे वरिष्ठ नेता की बगावत के बाद संकट गहराता नज़र आता है.चिंता और चिंतनकांग्रेस संकट में होती है तो वह सोचना शुरू करती है. 1974 में नरोरा का शिविर जय प्रकाश नारायण के आंदोलन का राजनीतिक उत्तर खोजने के लिए था.1998 का पचमढ़ी शिविर 1996 में हुई पराजय के बाद बदलते वक्त की राजनीति को समझने की कोशिश थी. सन 2003 का शिमला शिविर गठबंधन की राजनीति की स्वीकृति के रूप में था.कांग्रेस ने पचमढ़ी में तय किया था कि उसे गठबंधन के बजाय अकेले चलने की राजनीति को अपनाना चाहिए. शिमला में कांग्रेस को गठबंधन का महत्व समझ में आया.जनवरी 2013 के जयपुर चिंतन शिविर में चिंतन हुआ ही नहीं केवल राहुल गांधी के आरोहण की कामना की गई.महत्वपूर्ण प्रश्न है कि क्या कांग्रेस अब फिर से चिंतन करेगी? क्या वह क्षेत्रीय स्तर पर ताक़तवर नेता तैयार कर पाएगी? ऐसे कई सवाल हैं.महत्वपूर्ण है ठंडे दिमाग़ से उनके जवाब खोजना. इन सवालों के जवाब संसद के इस सत्र से मिलने लगेंगे.

Posted By: Abhishek Kumar Tiwari