आप अपनी चेतना के बिना कुछ भी नहीं देख सकते हैं। इसलिए यदि आपका अपने मन पर पूर्ण प्रभुत्व हो और आप अपने अंतर में अपनी आत्मा को देख पाने में सक्षम हों तो आंखें खुली होने के बावजूद आप केवल ईश्वर के महान प्रकाश को देख पाने में सक्षम हो जाएंगे।

परमहंस योगानंद। एक बार मैं बाहर खुले में बैठा था। वहां बहुत ठंड थी। मैंने अपनी चेतना को अंतर्मुखी बन लिया। पल भर में ठंड की अनुभूति बिलकुल समाप्त हो गई। मेरे चारों ओर आनंद छा गया। अपने चारों ओर की वस्तुओं को एक चलचित्र के प्रकाश की किरण-पुंज के रूप में पिघलने की मुझे अनुभूति हुई। जब मैं चलचित्र पर एकाग्रचित्त होता था, तो मुझे लगता कि मैं चलचित्र ही देख रहा हूं। जब मैं किरण-पुंज पर एकाग्रचित्त होता था, तो हमारे आसपास का संसार लुप्त होता हुआ प्रतीत होता था। इस प्रकार की अनुभूति सिर्फ चेतना के कारण होती है।

आत्मा को देख पाने में सक्षम हों

आप अपनी चेतना के बिना कुछ भी नहीं देख सकते हैं। इसलिए यदि आपका अपने मन पर पूर्ण प्रभुत्व हो और आप अपने अंतर में अपनी आत्मा को देख पाने में सक्षम हों, तो आंखें खुली होने के बावजूद आप केवल ईश्वर के महान प्रकाश को देख पाने में सक्षम हो जाएंगे। इसके बाद आप परमानंद को भी अनुभव कर पाएंगे। जब आप अपनी आंखों से बाहर की ओर ध्यान से देखते हैं, तभी आपकी चेतना को बाह्य जगत का बोध हो पाता है। यह सब ईश्वर का चलचित्र है। इसे एक उदाहरण के माध्यम से समझा जा सकता है।

ईश्वर से प्रतिदिन यह जरूर कहें

जैसे ही मैं अपने अंतर में जाता था, नाममात्र भी संवेदनाएं नहीं रह जाती थीं। केवल विशुद्ध आनंद था। ईश्वर की उपस्थिति का अभ्यास करें। यह अभ्यास तभी पूर्ण होगा, जब आप पूर्णरूप से सभी इंद्रियों को नियंत्रित कर लेते हैं। स्वयं को कभी-भी धोखा न दें। ईमानदारी पूर्वक और अनवरत रूप से ध्यान करें। ईश्वर से प्रतिदिन यह जरूर कहें, 'मैं अपनी कमजोरियों को जानता हूं, लेकिन प्रभु आपने ही मुझे बनाया है। आप हमारे जीवन के सुख और दुख दोनों पहलुओं से मुक्त हैं, इसलिए मैं भी मुक्त हूं।' इन वाक्यों का मन पर अवश्य प्रभाव पड़ेगा।

सुख और दुख के भाव से परे

एक बार की बात है। जब फ्रांस की सुप्रसिद्ध महिला संत बर्नाडेट के जीवन पर आधारित चलचित्र को मैंने जब पहली बार देखा, तो उस संत के जीवन में घटित कुछ दृश्यों से मैं इतनी गहराई से प्रभावित हो गया कि रो पड़ा। मैंने स्वयं से कहा, 'यह मुझे क्या हो रहा है?' मैंने चलचित्र को दोबारा देखा, तब केवल छाया एवं प्रकाश ही दिखाई दिए। नाटक की मेरी चेतना ही लुप्त हो गई। मैं और नहीं रो पाया। एक महान आनंद की अवस्था मुझ पर छा गई। यह ठीक उसी तरह है, जिस तरह आप जब सुख और दुख के भाव से परे हो जाते हैं, तो दुख के भाव कुछ क्षण के लिए आपको प्रभावित तो करते हैं, लेकिन इसका प्रभाव अधिक देर तक टिक नहीं पाता है।

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Posted By: Kartikeya Tiwari