राइटिंग किसी भी लैंग्वेज में कठिन है और इसके जरिये रोजगार ढूँढ़ना और भी कठिन. राइटर हिन्दी का हो या अंग्रेजी का दिक्ततें उठा ही रहा है. अगर आप कुछ पापुलर राइटर्स को हटा कर बात करें तो पाएंगे कि हर भाषा में पहचान एक समस्या है.


आज के ठीक 62 सालों पहले 14 सितम्बर को कंस्टीट्युएंट एसेम्बली आफ इंडिया ने देवनागिरी लिपि में लिखी हिन्दी को इंडिया की आफीशिअल लैंग्वेज के रूप में स्वीकार किया था. इस दिन को हर साल हिन्दी दिवस के रूप में मनाया जाता है. अपने इन 62 सालों के सफर में हिन्दी ने कई नये मुकाम हांसिल किये और थोड़े बहुत बदलाव के साथ यह लोगों के दिल में आज भी रची बसी है. हिन्दी दिवस पर हमने बात की हिन्दी के यंग राइटर गौरव सोलंकी से जिन्होने आईआईटी से निकलकर नौकरी न करते हुए राइटिंग को अपना करिअर बनाया- गौरव, आप एक आईआईटिअन हैं. अल्फा, बीटा, गामा जैसी टेक्निकल लैंग्वेज छोड़कर कविता और कहानियों का ख्याल कैसे आ गया?


कविताएं मैं आईआईटी ज्वाइन करने के पहले से ही करता था. आईआईटी में आने से जो बात बदली वह यह थी कि मैंने खुद को पहचानना शुरू कर दिया. मैं जो भी लिखता था उसे पसंद किया जाता था. यह वह दौर था जब मैं अपनी लेखनी को लेकर कांफीडेंट हो रहा था. 2008 में मेरी पहली कहानी छपी और इसी बीच तहलका के लिये लिखने का मौका भी मिला. मैने आईआईटी से निकल कर एक साफ्टवेअर कंपनी में लगभग 6 महीने नौकरी की, पर शायद नौकरी करना मुझे पसंद नहीं था. एक बड़ा डिसीजन लेने का वक्त आ गया था और मैने अपने दिल की सुनी. थ्री ईडियट्स के आर माधवन वाले इस रोल में आप खुद को कितना फिट बैठा पाए? सही कह रहे हैं, पर मेरे समय तक थ्री ईडियट नहीं आई थी. कितना फिट बैठा यह तो नहीं कह सकता पर हां घर से उस वक्त कोई भी सपोर्ट नहीं मिल रहा था. सभी अपने मुझसे नाराज हो गये थे. उन्हे लगता था कि हिन्दी में रोजगार नहीं है और इस तरह मैं बेरोजगार होने जा रहा था. मेरा काम रंग लाया और वक्त के साथ धीरे धीरे सब सही हो गया. हिन्दी राइटिंग को आप किस नजरिये से देखते हैं.मैं मानता हूं कि राइटिंग किसी भी लैंग्वेज में कठिन है और इसके जरिये रोजगार ढूँढ़ना और भी कठिन. राइटर हिन्दी का हो या अंग्रेजी का दिक्ततें उठा ही रहा है. अगर आप कुछ पापुलर राइटर्स को हटा कर बात करें तो पाएंगे कि हर भाषा में पहचान एक समस्या है. आज इंटरनेट के आने से यह समस्या थोड़ी कम जरूर हो गई है. 

कहा जाता है कि इंडिया में पापुलर लिट्रेचर खूब चलता है. ऐसे में हिन्दी को पापुलर होने में संकोच क्यूं हो रहा है?  हां, यह सच है कि इडिया में चेतन भगत की किताबें अरूंधती राय से ज्यादा बिकती हैं और 'दबंग' 'उड़ान' के मुकाबले ज्यादा बिजनेस करती है. पापुलर लिट्रेचर तो वेद प्रकाश शर्मा का भी है जिनकी किताबों की लाखों प्रतियां हर साल बिकती हैं. यह तो राइटर को तय करना होता है कि उसे क्या चाहिये. हर राइटर की अपनी फैन फालोइंग होती है. मैं मानता हूं कि कुछ भी गलत या सही नही है. जिसमें खुद को खुशी मिले वही राइटिंग बेस्ट है. हिन्दी दिवस पर कई लोगों ने हिन्दी के गिरते स्तर को जमकर कोसा है. क्या आप मानते हैं कि स्तर वाकई गिरा है? मैं इतना रूढ़िवादी नहीं हूं. मुझे ज्यादा साफ सफाई पसंद नहीं है पर हां ज्यादा गंदगी से भी दिक्तत होती है. हिंग्लिश से मुझे दिक्तत नही हैं. कभी कभी जब आम बोल चाल के शब्दों को साहित्य में देखता हूं तो अच्छा लगता है. मगर ऐसे भी मौके भी आते हैं जब अंग्रेजी के शब्दों को गैरजरूरी तरीके से जोड़ा जाता है और उससे पढ़ने का फ्लो टूट जाता है.

आईआईटी से अब कई सारे राइटर्स निकल रहे हैं. कैंपस के अन्दर की लैंग्वेज कैसी है? 
 
हर जगह की अपनी एक लैंग्वेज होती है वो चाहे देश हो, प्रदेश हो या किसी कालेज का कैंपस. हमारे कालेज में अगर किसी को पार्टी देनी होती थी तो इसे 'चापो' कहा जाता था. अब हममे से कोई नहीं जानता कि चापो क्या है. कुछ लोगों का मानना है कि चापो 'चाय पकौड़े' से बना है पर इस पर सबके अलग मत हैं. हम यह भी नहीं जानते कि यह शब्द हिन्दी, अंग्रेजी, तमिल, कन्नड़ या किसी और लैंग्वेज में से किस लैंग्वेज का है. पर यह तो तय है कि चापो केवल आईआईटी रूढ़की में ही बोला जाता है.आगे क्या करने का इरादा है?अभी तो कहानियां और फिल्मों की स्क्रिप्ट लिखने में व्यस्त हूं. मुझे फिल्में बनानी हैं. इसके लिये ही तैयारी कर रहा हूं.Interviewed by: Alok Dixit

Posted By: Divyanshu Bhard