एक चाय बेचने वाले से भारतीय जनता पार्टी के प्रधानमंत्री पद का दावेदार बनने तक नरेंद्र मोदी का सफ़र एक सुनहरे सपने जैसा लगता है.


हालाँकि उनके अपने राज्य गुजरात में उनका उभार अपेक्षाकृत धीमा रहा है. मुख्यमंत्री बनने से पहले वे क़रीब 20 साल तक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ता रहे लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर बड़े राजनीतिक खिलाड़ी बनने में उन्हें सिर्फ़ 10 साल ही लगे.नरेंद्र मोदी के कई समर्थकों का मानना है कि भाजपा में उनके जैसा नेता कभी नहीं हुआ.मोदी को लेकर मीडिया में ऐसी हवा है कि मोदी समर्थकों को ऐसा लगना स्वाभाविक लगता है.यह सच है कि इस समय वह ऐसे नेता हैं जिसकी लोकप्रियता अपने उफ़ान पर है.बहुत से लोगों को लग रहा है कि उन पर लगा 2002 के गुजरात दंगे का दाग़ धीरे-धीरे धुंधला होता जा रहा है लेकिन कुछ दिन पहले तक भाजपा में एक ऐसा नेता था जिसका क़द और जिसकी लोकप्रियता मोदी से कहीं ज़्यादा थी.प्रधानमंत्री की कुर्सी


आडवाणी रथयात्रा के नायक थे. उस समय राम मंदिर आंदोलन की परिणति अयोध्या स्थित बाबरी मस्जिद के विध्वंस के रूप में हुई थी.आडवाणी को चुनाव में इसका फ़ायदा मिला, लेकिन इसी के साथ ही वो राजनीति में अस्पृश्य जैसे हो गए.आडवाणी ने देश में ऐसी राजनीतिक उठापटक और उन्माद को जन्म दिया, जैसा आज़ाद भारत में पहले कभी नहीं देखा गया था.

बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद ज़्यादातर राजनीतिक दलों के लिए आडवाणी एक अछूत बन गए थे, लेकिन अपने चाहने वालों की नज़र में वो पहले से भी बड़े नायक बनकर उभरे थे.कहना न होगा कि आडवाणी को मोदी से नफ़रत भी ज़्यादा मिली थी और प्यार भी.इंटरनेट से पहलेआडवाणी की राजनीतिक मेहनत रंग भी लाई थी और साल 1989 के लोकसभा चुनाव में 85 सीटें पाने वाली भाजपा साल 1991 के चुनाव में 121 सीटों तक पहुँच गई थी.दिल्ली में 1993 में और गुजरात में 1995 में भाजपा सरकार बनाने में सफल रही थी, लेकिन इसके बावजूद उस समय आडवाणी भाजपा को केंद्र में लाने का अपना सपना पूरा नहीं कर पाए.उस समय कहा जाता था कि आडवाणी भारत के गाँवों में अपनी पहचान और पकड़ नहीं बना पाए थे. बाद में 1999 में भाजपा लोकसभा चुनावों में अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करते हुए 189 सीटें जीतकर केंद्र की सत्ता पर काबिज़ तो हुई, पर इसका सेहरा आडवाणी के नहीं बल्कि किसी और के सिर बंधा.

इसमें कोई दो राय नहीं कि  नरेंद्र मोदी क्षेत्रीय नेता की अपनी छवि बदलकर आडवाणी ही की तरह एक राष्ट्रीय नेता बनना चाहते हैं और शायद इसीलिए वो धुआँधार देशव्यापी दौरे कर रहे हैं.हो सकता है कि मध्यवर्गीय भारत में मोदी की लोकप्रियता पहले से बढ़ी भी हो, लेकिन जैसे आडवाणी को 1991 में पता चला था उसी तरह शायद मोदी को भी आगामी चुनावों के बाद पता चले कि केंद्र की कुर्सी भारत के गाँवों के वोटों से मिलती या फिसलती है.आगामी लोकसभा चुनावों में भारत के गाँव ही तय करेंगे कि भाजपा 10 साल बाद केंद्र में आ पाएगी या नहीं.

Posted By: Subhesh Sharma