राजपूतों की आन बान और शान की खातिर मुगलों से लोहा लेने वाले मेवाड़ नरेश महाराणा प्रताप के युद्धकौशल के किस्‍से तो भारत का बच्‍चा बच्‍चा अपनी स्‍कूल बुक्‍स में पढ़ता चला आ रहा है। फिर भी प्रताप से जुड़ी कुछ बातें ऐसी हैं जिनके बारे में हम आप कम ही जानते हैं। तो जरा एक बार तो जानिए प्रताप से जुड़ी वो गाथा जो उनके बचपन से शुरु होती है।

कानपुर। महाराणा प्रताप अपने बचपन में प्रताप सिंह के नाम से जाने जाते थे। 9 मई को मेवाड़ नरेश राणा उदय सिंह के घर जन्में प्रताप बचपन से ही काफी प्रतापी रहे। अपने पिता की कई संतानों की ही तरह प्रता प ने भी युद्धकला की शिक्षा ली थी, लेकिन उन सभी में सिर्फ वो ही राजा बनने के लायक साबित हुए, क्योंकि उनमें कई ऐसे गुण थे जो उन्हें आगे लेकर गए।

 

किशोर उम्र में जीती पहली लड़ाई

प्रताप सिंह को अपनी किशोर अवस्था में ही एक युद्ध लड़ना पड़ा, तो उन्होंने जीतकर साबित कर दिया कि वो ही राज्य को संभालने में सक्षम है। दरअसल राजस्थान के डूंगरपुर और बांसवाड़ा जैसे छोटे राज्य सालों से मेवाड़ की छत्रछाया में शासन कर रहे थे, लेकिन अचानक वो खुद को स्वतंत्र मानने लगे। इसी बीच शारदा और चनवाड़ जैसे छोटे राज्यों ने मेवाड़ को लगान और दूसरे कर देना बंद कर दिया। तो ऐसे में राजा उदय सिंह ने अपने बेटे प्रताप को इन सभी राज्यों पर दोबारा से काबिज होने लिए आक्रमण का आदेश दिया। प्रताप की उम्र उस वक्त बहुत ज्यादा नहीं थी, लेकिन वो करीब 2 हजार सैनिकों के साथ बगावत करने वाले राज्यों पर फतेह करने के लिए चल दिए। प्रताप के साहस और युद्ध कौशल का ही परिणाम था कि उन्होंने अपनी जिंदगी की यह पहली लड़ाई जीत ली। जीत के बाद वापस महल में लौटने पर राणा उदय सिंह ने खुद जाकर उनका स्वागत किया और जीत का शानदार जश्न मनाया।

 

भीलों से की गहरी दोस्ती

प्रताप सिंह यानि महाराणा प्रताप को बचपन से ही तीर और भाला चलाने के साथ ही शिकार करने का बड़ा शौक था। इस कारण कई बार वो अपने खास दोस्तों के साथ जंगल में शिकार खेलने जाते और कई कई दिन वहीं पर बसेरा करते थे। इस दौरान जंगलों में रहने वाले भीलों से प्रताप की गहरी दोस्ती हो गई। आम लोगों के साथ बराबरी और मानवता का व्यवहार करने वाले प्रताप से वो भील काफी प्रभावित थे, इसके कारण वो प्रताप के प्रति काफी वफादार बन गए। भीलों से की गई इस दोस्ती का बड़ा फायदा प्रताप को बाद के सालों में मिला।

 

मिला कांटों भरा ताज

महाराणा प्रताप के पिता राजसी विलासिता के आदी थे, इस कारण वो अपने राज्य की सुरक्षा पर पर्याप्त ध्यान नहीं देते थे। नतीजा यह हुआ कि अपने राज्य को बचाने और चित्तौड़ किले को न जीत पाने की चिंता में राजा उदय सिंह काफी बीमार और कमजोर हो गए। इस दौरान उनकी सेवा करने वाली उनकी एक रानी ने उन्हें बहलाकर या धोखे से अपने पुत्र जगमाल को उत्तराधिकारी राजा घोषित करा दिया। हालांकि राज्य के तमाम दरबारियों और ब्राह्मणों की सहमति के बिना ऐसा होना संभव नहीं था। ऐसे में महाराणा प्रताप को मेवाड़ के राजा का ताज इस तरह से मिला, जो कांटो से भरा हुआ था। चित्तौड़ और अजमेर पर मुगलों का कब्जा हो चुका था। यानि कि राजा बनते वक्त प्रताप के पास न राजधानी थी न राजा का पूर्ण वैभव, बस था तो स्वाभिमान, साहस और उनका पुरुषार्थ। ऐसे में प्रताप ने राजा बनकर भी वो फैसला किया जो किसी ने नहीं किया था।

 

राजसी ठाटबाट छोड़कर बिताया आम लोगों सा जीवन

ऐसी अधूरी सत्ता मिलने ने निराश महाराणा प्रताप ने फैसला किया कि जब तक वो मेवाड़ को उसकी सत्ता और गौरव वापस नहीं लौटा देंगे, तब तक वो एक राजा जैसा जीवन नहीं बिताएंगे। वो तय किया कि वो सोने चांदी की थाली में राजसी भोजन नहीं करेंगे, न ही आरामदायक कोमत बिस्तर पर सोएंगे। इस तरह से प्रताप काफी अर्से तक राजाओं वाली विलासिता का त्याग करते रहे और आम जिंदगी बिताते हुए वो लोगों के बीच रहकर अपनी शक्ति बढ़ाने में जुटे रहे।

 

अकबर भी खाता था भय

चारो ओर तेजी से फैलते मुगल साम्राज्य को छोटा सा स्वतंत्र राज्य मेवाड़ बहुत खटक रहा था। अकबर ने भले ही चित्तौड़ को जीत लिया था, लेकिन वो जीत उसे बहुत संघर्ष और नुकसान के बाद मिली थी। अकबर को मालूम था कि महाराणा प्रताप बेहद साहसी और युद्ध कौशल के धनी हैं, इसी वजह से वो खुद महाराणा प्रताप के सामने आकर उनसे युद्ध नहीं करना चाहता था, क्योंकि उसे अपनी हार या बड़े नुकसान का डर था।

एके गांधी की पुस्तक महाराणा प्रताप इंडियाज वॉरियर किंग से साभार

Posted By: Chandramohan Mishra