राष्ट्रीय खिलाड़ी से चंबल के बाग़ी बने पान सिंह तोमर के जीवन पर इसी नाम से हिट फ़िल्म बनाने वाले तिग्मांशु धूलिया ने कहा है कि मुंबई के नब्बे प्रतिशत फ़िल्म बनाने वाले अनपढ़ हैं इसीलिए उन्हें मुबई के बाहर पूरा हिंदुस्तान देहात जैसा नज़र आता है. बीबीसी हिंदी से एक विशेष बातचीत में धूलिया ने बताया कि भारत के गुमनाम खिलाड़ियों की बेहतरी के लिए वो सचिन तेंदुलकर आदि से बात करके एक ट्रस्ट बनाने की कोशिश करेंगे. उन्होंने “बॉलीवुड” शब्द के प्रति भी एतराज जाहिर किया है. प्रस्तुत हैं इंटरव्यू के कुछ अंश:

पान सिंह तोमर फ़िल्म को आपने उन भारतीय खिलाड़ियों को समर्पित किया है जो अँधेरों में खो गए?

जब मैंने रिसर्च शुरू की तो मैं सिर्फ़ पानसिंह तोमर की कहानी बताना चाहता था। लेकिन जब मैं इन खिलाड़ियों के घर गया तो मेरी समझ में आया कि ये पिक्चर तो कुछ और है यार। मैं पटियाला-लुधियाना के छोटे छोटे गाँवों में गया क्योंकि वहाँ से एथलीट ज्यादा आते थे। उनका टूटा सा दरवाज़ा जिस पर लिखा है ओलंपियन दलजीत सिंह आदि। बहुत ग़रीबी है, तबियत ख़राब है, एलज़ाइमर हो चुका है। पर दिल बहुत बड़ा है उनका। बहुत आवभगत करते हैं। वो बहुत गर्व के साथ अपने पुराने एलबम की फ़ोटो दिखाते हैं।
मुझे लगा कि क्रिकेट खिलाड़ियों के लिए हम इतना करते हैं, इनके लिए क्यों नहीं। इसीलिए मैंने फ़िल्म उन्हें समर्पित की। अमिताभ बच्चन ने इतनी तारीफ़ की, ट्वीट किया, अपने ब्लॉग पर लिखा। मैं बात कर रहा था कि इन खिलाड़ियों के लिए एक ट्रस्ट खोला जाए। मैं सचिन तेंदुलकर से और दूसरे लोगों से बात करूँगा और सौ प्रतिशत इस काम को करूँगा।

आप शेखर कपूर को अपना गुरू मानते हैं। उनसे क्या सीखा?

उन्होंने मुझे ये समझाया कि सिनेमा कॉमर्शियल ज़रूर है पर मूलतः ये कला है। कला पर तवज्जो दो तो कॉमर्स हो जाएगा। शेखर कपूर सच में कलाकार हैं। बहुत शांत व्यक्तित्व है। उनकी छाप तो है मुझमें।

पान सिंह तोमर पर कितना असर है बैंडिट क्वीन का?

बैंडिट क्वीन नहीं होती तो पानसिंह तोमर नहीं हो पाती। बैंडिट क्वीन करते वक़्त ही हम रिसर्च कर रहे थे। संडे मैगज़ीन में पान सिंह तोमर पर लेख मैंने पढ़ा। अगर बैंडिट क्वीन नहीं होती तो मुझे पानसिंह तोमर के बारे में पता ही नहीं चलता। वो कोई भगत सिंह या चंद्र शेखर आज़ाद नहीं था इसलिए उसके बारे में किताबों में कुछ नहीं लिखा गया है। मैं जब प्रोड्यूसर्स को इस फ़िल्म के बारे में बताता था तो उन्हें अच्छा तो लगता था पर वो कहते थे कि पहले स्क्रिप्ट लिख दो। मैं कहता था ये यथार्थ है इस पर रिसर्च होनी चाहिए। बड़े दुख की बात है कि हमारी हिंदी फ़िल्म इंडस्ट्री में रिसर्च पर कोई ध्यान नहीं देता। अभी तक तो एक अँग्रेज़ी फ़िल्म की डीवीडी उठाकर उसकी कॉपी कर देना सबसे आसान चीज़ लगती है इन्हें।

पान सिंह तोमर में आपने बुंदेलखंडी-हिंदी का इस्तेमाल किया है। ये उन अर्थों में बॉलीवुड नहीं बल्कि हिंदी सिनेमा है.

मुझे भी बॉलीवुड शब्द का इस्तेमाल करना बहुत ख़राब लगता है। जो लोग इस शब्द का इस्तेमाल करते हैं उन्हें मैं समझाता हूँ कि कुछ तो इज़्ज़त रखो। पान सिंह तोमर बनाने से पहले मैंने ये नहीं सोचा था कि हिंदी सिनेमा की सूरत बदल दी जाए। मैं सिर्फ़ एक साधारण आदमी की कहानी साधारण तरीक़े से सुनाना चाहता था। मैं बहुत गिज़मोज़ का इस्तेमाल नहीं करना चाहता था न ही पेचीदा शॉट्स लेना चाहता था। वैसा करता तो लगता कि सयाना बनने की कोशिश कर रहा हूँ। मैं सिर्फ़ दादी-नानी की तरह से कहानी सुनाना चाहता था। अब लोगों का जो रिस्पॉन्स मिला उसने मुझे और विनम्र बना दिया है। ये कहना ग़लत है कि लोगों को सिर्फ़ कैंडी फ़्लॉस तरह की (आधी हिंदुस्तानी-आधी अमरीकी) कहानियाँ पसंद आती हैं। वो उस तरह की फ़िल्में भी देखते हैं पर कोई अच्छी फ़िल्म भी आती है तो उसे भी देखते हैं।

पान सिंह तोमर के कुछ कलाकार एकदम नए दिखते हैं। ख़ासतौर पर वो एक्टर जिन्होंने पत्रकार की भूमिका निभाई है और जो फ़िल्म में पान सिंह तोमर का इंटरव्यू लेते हैं

पानसिंह तोमर में पत्रकार का रोल ब्रजेंद्र काला ने किया। मेरे साथ पहले भी काम कर चुके हैं। वो काफ़ी डरा हुआ पत्रकार है। मैं कोई दबंग टाइप का लंबा चौड़ा आदमी नहीं चाहता था। हिंदी पत्रकार अँग्रेज़ी पत्रकारों से ज़्यादा दबंग होते हैं, ज़्यादा पढ़े लिखे होते हैं। लेकिन इस मामले में मैं चाहता था कि वो डरा हुआ दिखे क्योंकि वो पानसिंह तोमर से मिलने जा रहा है। ब्रजेंद्र काला ने बहुत अच्छा काम किया है।

कास्टिंग कैसे करते हैं? कैसे छाँटते हैं आप अभिनेताओं को?

मैं पहले कास्टिंग ही करता था। कई विदेशी फ़िल्मों की भी कास्टिंग की घर चलाने के लिए। मुझे ड्रामा स्कूल का फ़ायदा तो मिला। कोई मणिपुर से आता है कोई तमिलनाडु से। मुझे पता है कि बेतिया में शूटिंग करनी है तो वहाँ कौन एक्टर है। मणिपुर में शूटिंग करनी है तो पता है मुझे वहाँ एक्टर कहाँ मिलेंगे। मुझे पूरे हिंदुस्तान में एक्टरों के गढ़ मालूम हैं। ये ड्रामा स्कूल की वजह से हुआ। और इन एक्टरों के साथ काम करना बेहतर है। ये सच के लोग हैं। इसलिए मेरा उनकी ओर रुझान भी होता है।

क़स्बों, छोटे शहरों की ज़िंदगी को सामने लाने वाली फ़िल्मों का बॉलीवुड के शोर में क्या भविष्य है?

मैं, अनुराग कश्यप, दिबाकर जो बाहर से आए हैं बंबई के नहीं है। मैं अब भी ख़ुद को बाहर का ही मानता हूँ। हम जैसे लोग इस तरह का सिनेमा बनाते ही रहेंगे और कुछ कर ही नहीं पाएँगे। एक तरफ़ कॉमर्शियल सिनेमा चलेगा और दूसरी तरफ़ ऐसी फ़िल्में भी आएँगी। जो कॉमर्शियल हिट भी हो और असली हिंदुस्तान की बात भी कह जाएं, ये होना अभी बाक़ी है। ऐसा पहले होता था। मदर इंडिया इतनी रूटेड फ़िल्म है। गंगा जमना। इतनी बड़ी कॉमर्शियल फ़िल्म तो देखी नहीं। शोले भी उनमें से एक है।

लोग कहते हैं अब देहात और देहाती मुद्दों पर फ़िल्में बनाने के दिन लद गए। क्या वाक़ई ऐसा है?

बिलकुल नहीं। जो लोग ये बात कहते हैं मुंबई में उन फ़िल्म बनाने वालों में से नब्बे प्रतिशत लोग अशिक्षित हैं। ये एकदम सच है। वो लोग पढ़े लिखे बिलकुल नहीं हैं। बंबई से मेरी कोई दुश्मनी नहीं है। यहाँ के लोग बहुत प्यारे हैं। लेकिन बंबई के एक ग्रैजुएट के सामने जबलपुर का ग्रैजुएट बौद्धिक तौर पर भारी पड़ेगा। ये बात सौ फ़ीसदी सही है। मैं मणि रत्नम साहब की फ़िल्म बाम्बे देख रहा था इलाहाबाद में। उसमें मनीषा कोइराला एक दृश्य में नदी पार करती है। उसे देखकर सबसे अगली सीटों पर बैठे लोगों ने सीटी मारकर बोला  अबे, लालबहादुर शास्त्री बे !! क्योंकि शास्त्री जी नदी पार करके पढ़ने जाते थे। क्या कनेक्ट है।

क्या क्रॉसओवर फ़िल्म बनाने के बारे में सोचा.

कभी ऐसी कहानी सामने आएगी तो करेंगे। पर मेरे अंदर हिंदुस्तान ज़्यादा भरा हुआ है। ये बात ग़लत है कि देहात के बारे में फ़िल्में बनाने के दिन गए। बंबई के फ़िल्म बनाने वालों को लगता है कि पूरा हिंदुस्तान बॉम्बे ही है। बॉम्बे के बाहर पूरा हिंदुस्तान गाँव है। हम भी इलाहाबाद में रहे। इलाहाबाद कोई गाँव है? तुम तो वहीं थे, तुम जानते हो कि वहाँ वेस्टर्न म्यूज़िक का कितना ज़बरदस्त सीन था। मैं ख़ुद (गिटार) बजाता था। अमिताभ बच्चन कहाँ के हैं, इलाहाबाद के हैं। और बंबई के फ़िल्ममेकर्स को लगता है कि पूरा हिंदुस्तान गाँव है। ये इनके अज्ञान को झलकाता है। लेकिन उन्हें सिखाना पढ़ाना मेरा काम नहीं है। मैं अच्छी फ़िल्में बनाऊँ बस यही चाहता हूँ.
इरफ़ान से आपने जो सघन काम लिया है, वो कैसे संभव हो पाया? कुछ लोग कहते हैं उनसे काम लेना बहुत आसान नहीं है

इरफ़ान बंबई में मेरा एकमात्र दोस्त है। हमारे बच्चे भी एक क्लास में पढ़ते हैं। एक्टर के तौर पर मैं उनकी बहुत इज़्ज़त करता हूँ। ड्रामा स्कूल में वो मुझसे दो साल सीनियर था। ऐसा नहीं हैं कि उसने मेरी या मैंने उसकी मदद की हो। ये रिश्ता बना काम की वजह से। वो हिंदुस्तान के उन चंद अभिनेताओं में से हैं जो बेहद, बेहद प्रतिभावान हैं। वो राष्ट्रीय धरोहर हैं।

एक्टर के काम में कितना दख़ल रहता है आपका?

अगर तुम इरफ़ान की बात कर रहे हो तो इरफ़ान और मैं सीन पर कोई ज़्यादा बातचीत नहीं करते हैं। मैं अपनी स्क्रिप्ट ख़ुद लिखता हूँ और जब मैं स्क्रिप्ट उन्हें सुनाता हूँ उसी वक़्त बातचीत हो जाती है। सेट पर हम कभी डिस्कस नहीं करते। ‘हासिल’ में भी कभी नहीं हुआ ऐसा। मैं अपने एक्टर्स को बहुत ज़्यादा बताता नहीं हूँ कि इधर घूम के बात करो या ऐसे डायलॉग बोलो। थिएटर की ट्रेनिंग है तो मैं उन्हें सेट पर ले जाता हूँ और कहता हूँ जो करना है, जैसे करना है करो। उनके मूवमेंट के हिसाब से मैं सीन ब्लॉक कर देता हूँ।

आगे किन फ़िल्मों पर काम कर रहे हैं?

साहब, बीवी और गैंगगस्टर की दूसरी क़िस्त पर काम चल रहा है। एक फ़िल्म है मिलन टॉकीज़ जिसकी स्क्रिप्ट तैयार है। ये एक लव स्टोरी है। इलाहाबाद के बैकग्राउंड पर। मेरा मन बहुत था कि एक प्योर लवस्टोरी बनाऊँ। बंबई में मैं इसे सेट नहीं करना चाहता था क्योंकि यहाँ लवस्टोरी में कोई संघर्ष ही नहीं है। आप आराम से मिल सकते हैं। मॉल में मिल लीजिए यहाँ तो ऑटो में मिल लेते हैं लोग और पता नहीं क्या क्या कर लेते हैं ऑटो ही में। तो वो जो संघर्ष है लड़का लड़की के मिलने का, डर कर मिलने का, समाज का दबाव बड़े शहरों में वो ग़ायब हो गया है। मिलन टॉकीज़ छोटे शहरों-क़स्बों के जीवन मूल्यों का उत्सव है।

इलाहाबाद के दिनों के बारे में कुछ बताइए?
हमारा एक ग्रुप था दस्ता। नुक्कड़ नाटक करते थे, क्रांतिकारी पोस्टर लगाते थे। मुझे जो कुछ मिला इलाहाबाद से ही मिला। हमारा एक फ़िल्म क्लब था जिसके लिए हम 16 मिमी की फ़िल्में पूना से मँगाया करते थे। गोदार आदि की फ़िल्में तभी देखीं। थिएटर के जितने नामी गिरामी लोग थे उनको हम सुपर स्टार की तरह देखते थे। पर मैं इलाहाबाद से निकलकर ऐसी जगह जाना चाहता था जहाँ थोड़ी बहुत बौद्धिक गतिविधियाँ होती हों। ऐसा नहीं था कि मैं एनएसडी में ही जाना चाहता था। मैं सिर्फ़ माहौल देखने गया। इरफ़ान का नाटक देखा। मुझे जैसा खुलापन वहाँ नज़र आया। जैसे लड़के लड़कियाँ खुले अंदाज़ में घूम रहे हैं, बातचीत चल रही है। कोई पाबंदी नहीं है। बस मैंने तय कर लिया कि मुझे यहीं आना है।

एनएसडी में जो कुछ सीखा वो बंबई में काम आया या वहाँ जाकर एक नई शुरुआत करनी पड़ी.

इंप्रिंट तो होता ही है। घर से भी बहुत कुछ मिला। पिताजी हाईकोर्ट के जज रहे, माताजी संस्कृत की प्रोफ़ेसर थीं। मेरे दोनों बड़े भाई मुझसे ज़्यादा फ़िल्में देखते रहे। डिनर टेबल पर जो बातें होती थीं उसमें मैं ज़्यादा हिस्सेदारी नहीं कर पाता था क्योंकि मेरे बड़े भाई मुझसे सात-आठ साल बड़े हैं। मैं सुनता रहता था राजनीति पर, संस्कृ़ति पर। थिएटर के जितने नामी गिरामी लोग थे उनको हम सुपर स्टार की तरह देखते थे। पर एनएसडी आने पर मैंने उन्हें देखा और मेरा मोहभंग हो गया। मुझे लगा ये सरकारी पैसे पर थिएटर हो रहा है और इसका कुछ होना नहीं है। थिएटर इतना डी ग्लैमराइज़्ड होता था। मैंने तय कर लिया कि थिएटर नहीं करना। एनएसडी से निकलने के बाद चार साल तक मैं दिल्ली में रहा लेकिन मैंने फ़िल्में ही कीं। पर थिएटर का असर तो फ़िल्मों में दिखता ही है। जब आप अपने सीन ब्लॉक करते हैं तो उसका असर होता ही है।

Posted By: Inextlive