तो क्या सुलगती रहेगी मायानगरी
एक बार फिर खुफिया तंत्र नाकाम हो गया. आतंक का सिनानिम बन चुकी मुंमई फिर से दहल उठी. दुनिया भर से आये लोग जब भागती दौड़ती जिन्दगी को किसी तरह जीने की कोशिश कर रहे होंगे, लोकल्स में धक्के खाते हुये अपने सपनों में खोए हुए होंगे, जाब, बिजनेस या आर्ट (जिसके लिये मुम्बई फेमस है) में अपना मुकाम बनाने की सोच रहे होंगे, धमाकों ने ठीक उसी वक्त उन्हें उनके सपनों के साथ शान्त कर दिया. आखिरकार फिर एक बार साबित हुआ कि मुम्बई की ये जादुई दुनिया किसी मायानगरी से कम नही है जहां हर वक्त कुछ ऐसा होता कि लोगों के मन में उसके बाद दहशत और ज्याद गहराई से बैठ जाती है. आखिर जानते हैं कि आखिर कैसे देश की कामर्शिअल कैपिटल बन गई मायानगरी-
लाला के बाद माफिया का ताज वरदाराजन मुदालियर उर्फ ‘वर्धा’ के सर आ गया. मुदालियर एक तमिल माइग्रेंट था जो अपने साथ बहुत सारे साउथ इंडियन लेबर्स लेकर आया था. एक पाटर के तौर पर अपना करियर स्टार्ट कर वर्धा जल्द ही बूटलेगिंग और सट्टे के कारोबार में आया. कुछ ही समय बाद सुपारी किलिंग, स्मगलिंग और वसूली कर वर्धा 70 के दशक का सबसे पावरफुल डान बन गया. उस समय की सोशलिस्ट गवर्नमेंट का इकानमी पर डाला गया रिस्ट्रिक्शन माफियाओं को खूब भाया और उन्होने जम कर कालाबाजारी की. धीरे धीरे इन माफियाओं का इंफ्लुएंस पूरे मुम्बई पर देखा जाने लगा. पालिटिक्स, बिजनेस और सिनेमा हर जगह माफियाओं का दखल था. मुम्बई इस समय तक माफियाराज से पूरी तरह परेशान था.
इसी बीच मस्तान मिर्जा भी ‘की रोल’ मे आ गया. मस्तान मिर्जा यानि हाजी मस्तान यानि 'बावा'. उसके फिल्म इंडस्ट्री में दखल की वजह से उसकी पापुलैरिटी भी तेजी से बढ़ी. 1975 में इंमर्जेन्सी के दौरान एक और शख्स हाजी मस्तान माफियाडान बनने की लाइन मे था और जेल काट रहा था. इस सब का फायदा उसे पालिटिकल कान्टैक्ट्स मेंटेन करने में भी मिला. जेल में उसने हिन्दी सीखी और जेल के बाहर बोलना. इसके बाद वह एक मुस्लिम लीडर बन कर उभरा और 1985 में उसने एक पार्टी भी बनाई. कुली के काम से भाईगिरी और फिर किलिंग, स्मगलिंग और अन्डरवर्ड तक के इस सफर मे हाजी मस्तान ने मुम्बई का आइना ही बदल दिया. माना जाता है कि मस्तान ने राजकपूर, संजीव कुमार, सलीम खान और अमिताब बच्चन से अपने दोस्ताना सम्बन्धों के जरिये बालीवुड के बिजनेस पर भी अपनी मजबूत पकड़ बना रखी थी. 1980 का आलम यह था कि ये डान मुम्बई में पैरलल गवर्नमेंट रन कर रहे थे. कोई ऐसा कारोबार नहीं था जिसपर माफिया का कब्जा न हो. एडमिनिस्ट्रेशन इनके इशारों पर नाचता था और गवर्नमेंट इनकी धुन बजाती है. अन्डरवर्ड के पास बेतहासा पैसा आ रहा था. यह पैसा फिल्मों में भी लग रहा था और पालिटिक्स में भी. इन तीनों डानों के रेजीम तक एक अच्छी बात थी कि माफियागिरी का कम्यूनलाइजेशन नही हुआ था. मगर बाद मे नौबत और खराब हो गई.
1993 तो बस शुरूआत थी. मुंबई मे आग लग चुकी थी. ऐसी आग जिसे बुझना ही नहीं था. अब माफिया सरगना जान चुके थे कि हिन्दू मुस्लिमों को आपस में लड़ा कर वो इस आग से अपनी रोटियां सेंक सकते है. छोटा राजन कट्टरपंथी हिन्दू संगठनों के साथ मिल गया तो दाउद अब्राहम ने भी मुंबई धमाकों का क्रेडिट लेकर उन आतंकी सरगनाओं से करीबी बढ़ा ली जो खुद को मुस्लिम समुदाय के वेलविशर कहते हैं. आये दिन धमाके और हिंसक घटनाएं होती रहीं. दाउद ओसामा बिन लादेन और अलकायदा का बेहद करीबी बन गया और कुछ ही समय में इंटरनेशनल टेररिज्म मे की रोल मे आ गया. 2003 में दाउद को अमेरिका ने ‘इंटरनेशनल टेररिस्ट’ डिक्लेयर कर दिया.
छोटा राजन और डी कम्पनी की आपसी दुश्मनी भी बाद के सालों में देखने मे मिली है. गैंगवार्स में दोनों ओर के कई शूटर्स और माफिये मारे गए है. 2001 में सुनील सोअन और विनोद शेट्टी की हत्या ने दाउद के महकमे में खलबली मचा दी थी. बाद में शरद शेट्टी के मर्डर से यह इस बात की डिबेट शरू हो गई कि आखिर मुम्बई का असली डान कौन है. हर ओर वसूली और दबदबे की बिसाते बिछ रही थीं. एक दूसरे के सपोर्टर्स मारे जा रहे थे और आम मुम्बइकर्स हैरान थे कि आखिर साथ दें तो किसका. पुलिस और इंटेलीजेन्स एजेन्सियां भी यही चाहती रहीं कि दोनों गैंग आपस में ही लड़े और उसे बिल्ली मौसी की तरह दोनों ही तरफ से फायदा होता रहे. कई बार ऐसे खुलासे हुए कि इंडिया की तमाम इन्वेस्टीगेटिव एजेन्सियां राजन तक दाउद की इंफार्मेशन पहुंचा रही है. सिलसिला यूं ही चलता रहा और मर्डर्स होते रहे.Reported by- Alok Dixit