हम मुलाकात करा रहे हैं बुर्जुगों की उस जमात से जो 60 की उम्र पार कर चुकी है लेकिन एक ऐसे हुनर को पनाह दे रहे हैं जो खत्म होने की कगार पर आ चुका था. रैम्प हो या शोरूम हर जगह फैशन में खास माना जाने वाला चालू काम जो मुकेश वर्क का ही एक फॉर्म है अब इन्हीं बुजुर्गों की विरासत है. सुबह 8 बजे से लगने वाली इस जमात में करीब 20 बुजुर्ग हैं जो चालू काम के माने हुए कारीगर हैं. वो इस उम्र में भी खुद पैसे कमा कर बड़े फख्र और अलग अंदाज में अपनी जिंदगी गुजार रहे हैं.


वो सब पैंसठ साल से ऊपर के हैं. कुछ को उनकी उम्र भी याद नहीं. वे अक्सर अपनों के ही नाम भूल जाते हैं, लेकिन जो चीज नही भूले हैं वो है काम. उनकी अंगुलियों को उम्र के इस पड़ाव पर भी याद है हुनर की एक-एक बारीकियां. कहने को तो ये चालू काम है लेकिन इसे करना सब के वश की बात नहीं.
मस्ती की पाठशाला, यंगस्टर्स की महफिल या फिर टीन एजर्स के मीटिंग प्वॉइंट के बारे में तो सभी ने सुना होगा, लेकिन आज हम मुलाकात करा रहे हैं बुर्जुगों की उस जमात से जो 60 की उम्र पार कर चुकी है, लेकिन एक ऐसे हुनर को पनाह दे रहे हैं जो खत्म होने की कगार पर आ चुका था. रैम्प हो या शोरूम हर जगह फैशन में खास माना जाने वाला चालू काम, जो मुकेश वर्क का ही एक फॉर्म है, अब इन्हीं बुजुर्गों की विरासत है. सुबह 8 बजे से लगने वाली इस जमात में करीब 20 बुजुर्ग हैं जो चालू काम के माने हुए कारीगर हैं. वो इस उम्र में भी खुद पैसे कमा कर बड़े फख्र और अलग अंदाज में अपनी जिंदगी गुजार रहे हैं. बड़े काम का ‘चालू’ काम


पुराने लखनऊ की गलियों से गुजरते हुए, दरगाह हजरत अब्बास के पीछे तमाम तरह की आबादी और दुकानों का मेला नजर आता है. लेकिन इसी भीड़ में चारों तरफ से खुली हुई दुकान पर नजर टिक ही जाती है. जहां अपनी अपनी जगह पर बैठे होते हैं कई बुजुर्ग. इनके हाथ में थमी हुई सुई इतनी तेजी से चलती नजर आती है कि देखने वाले भी हैरान रह जाते हैं. स्टील के तारों की यह चालू कारीगरी देखने के लिए अक्सर लोग रुक भी जाया करते हैं. सादे कपड़ों को अपनी कारीगरी से खूबसूरत बनाते बूढ़े हाथ नौजवानों को भी मात देते हैं. उम्र के इस दौर में जब लोग घर पर बैठ कर आराम फरमाते हैं, ये बुजुर्ग दिन भर एक तोला तार सिलते हैं और 150 रुपए कमा लेते हैं. सुबह 8 बजे कभी टिफिन बॉक्स लेकर तो कभी बिना खाना लिए ही निकल जाते हैं काम पर. इनका दिन शुरू होता है अपने हुनर के साथ और जायका बदलने के लिए कभी कभी ये लोग लंच किसी होटल में करते हैं.किसी के आगे हाथ नहीं फैलाते

करीब 72 साल के कल्लू इब्राहिम कहते हैं बचपन से यह काम सीखा था तब से यही कर रहे हैं. घर में लडक़े हैं मगर अब यह काम कोई सीखना नहीं चाहता क्योंकि इसमें मेहनत ज्यादा और मेहनताना कम है. अब इस उम्र में अपने हुनर से अपना खर्चा तो चला रहे हैं किसी के आगे हाथ नहीं फैलाना पड़ता. हमउम्र लोगों के साथ बैठकर हंसते हंसाते दिन कट जाता है और पैसा भी मिल जाता है. 68 साल के अब्बास अली कहते हैं कि इस उम्र में अपने हुनर से रोजी रोटी कमा रहे हैं यह छोटी बात नहीं है. यह बात अलग है कि हमारे बाद इस चालू काम को कौन चालू रखेगा. करीब 70 ही साल के मोहम्मद जाफर तेजी से हाथों को चलाते हुए हमसे बात जारी रखते हैं कि उन्होंने यह काम 13 साल की उम्र में ही करना शुरू किया था. बीच में तो यह काम बिल्कुल खत्म हो रहा था. पिछले दस सालों में फैशन इंडस्ट्री में चिकन और जरदोजी का के्रज बढऩे से इसमें एक बार फिर से उछाल आया है तो हम भी अपनी रोजी रोटी इसी से कमा रहे हैं.सीखने में एक साल
इस काम को लोग समझना ही भूल गये थे. इसको सीखना भी इतना आसान नहीं है यही वजह है कि लोग इसे सीखना नहीं चाहते क्योंकि इसमें वक्त ज्यादा लगता है. करीब एक साल लगातार काम करने के बाद ही कोई कारीगर कहलाता है. मेरे पास तो नब्बे साल के लोगों ने काम किया है, लेकिन वो गुजर गये. अब उम्र ही ऐसी है. हर साल कोई न कोई चला ही जाता है. जो भी हैं हम ही इस हुनर के रखवाले हैं. शहर में जब तक हम हैं काम चालू आहे.बुजुर्गों के हेड
एक छत के नीचे इतने बुजुर्गों को जमा करने वाला कोई और नहीं बल्कि एक बुजुर्ग ही हैं. करीब पच्चीस साल से इन कारीगरों को चालू काम से एक साथ जोडऩे वाले अब्दुल्ला यहां सभी के हेड हैं और दिनभर सभी के साथ बैठकर इस कारीगरी को परवान चढ़ा रहे हैं. वो भी चालू काम को बचपन से ही कर रहे हैं. अब्दुल्ला कहते हैं कि एक दौर था जब चालू काम के कारीगरों की कोई कमी ही नहीं थी. फिर अचानक यह काम अपनी पहचान खोने लगा. जो पुराने लोग थे वो धीरे धीरे खत्म होने लगे और नये लोगों ने इसे सीखा ही नहीं. अब अगर शहर की बात करें तो चालू काम के कारीगर बचे ही नहीं हैं. जो गिने चुने नजर आ रहे हैं वो मेरे ही पास काम कर रहे हैं.मगर अंगुलियां कुछ नहीं भूलींअस्सी साल के अकील आगा जो यह भी याद नहीं रख पाते कि उनके घर में लोग कितने हैं, वो घर से कितने बजे निकलते हैं और पैसा कितना कमा लेते हैं, वो कभी कभी अपने घर वालों को भी नहीं पहचान पाते, लेकिन कारीगरी में कोई भूल नहीं करते. यह काम कब से करते हैं? इस सवाल पर धीरे से यही जवाब देते हैं कि बचपन से. उम्र के इस पड़ाव पर आकर उनकी याद्दाशत सबकुछ भूलने लगी है लेकिन अंगुलियां अपना हुनर नहीं भूलीं. आज भी वो जैसे ही दुकान पर पहुंच कर हाथ में सुई और तार उठाते हैं उनकी अंगुलियां अपने आप चलने लगती हैं. खाने का वक्त होते ही अकील साथ लाया हुआ खाना उठाते हैं और चुपचाप खाने चल देते हैं.

Report by: Zeba Hasan

Posted By: Divyanshu Bhard