विश्व रंगमंच दिवस की पूर्व संध्या पर शहर की प्रतिष्ठित नाट्य संस्थाओं के रंगकर्मियों ने बयां किया दर्द

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PRAYAGRAJ: सोशल मीडिया का दौर है. इंटरटेनमेंट के ऐसे साधन आ गए हैं कि किसी भी आयु वर्ग के दर्शक बहुत ही कम नाट्य मंचनों की प्रस्तुतियों को देखने जाते हैं. सच कहा जाए तो गिनती के भी नहीं होते हैं. यह दर्द विश्व रंगमंच दिवस की पूर्व संध्या पर बातचीत में शहर की प्रतिष्ठित नाट्य संस्थाओं से जुड़े वरिष्ठ रंगकर्मियों का उभरकर सामने आया.

अब रिमोट का युग आ गया

तीस वर्ष से रंगमंच की दुनिया में सक्रिय वरिष्ठ रंगकर्मी नंदल हितैषी कहते हैं कि अब हाथ में एंड्रायड फोन और घर में रिमोट अधिक हो गया है. एक सीरियल पसंद नहीं आया तो दूसरा लगा देते हैं. इसका थिएटर में अभाव होता है. इससे दर्शक बोर होने लगते हैं. युवा रंगकर्मी सुशील आर्या का कहना है कि रंग कर्मियों की मजबूरी यह है कि यहां रिहर्सल के लिए कलाकारों को भटकना पड़ता है. जिसका नाकारात्मक प्रभाव नाट्य प्रस्तुति में दिखता है.

खुद जूझ रहा है रंगकर्म

बैकस्टेज के निदेशक प्रवीण शेखर ने बताया कि शहर की अधिकतर नाट्य संस्थाओं की प्रस्तुतियां स्थानीय होकर रह जाती हैं. प्रोडक्शन डिजाइन राष्ट्रीय स्तर का होना चाहिए जिसका अभाव है. इससे दर्शक एक बार तो आप के निमंत्रण पर आ जाएगा लेकिन दूसरी बार आने से पहले दस बार सोचेगा.

अब आपके घर में खुद के मुताबिक मनोरंजन के साधन उपलब्ध हैं. इसकी वजह से दर्शक कहीं भी जाना पसंद नहीं करते. एक घंटा एक ही नेचर का मंचन देखना तो कतई पंसद नहीं करते.

नंदल हितैषी, वरिष्ठ रंगकर्मी

किसी भी नाटक की प्रस्तुति से पहले रिहर्सल में बीस से तीस दिन का समय लगता है. रिहर्सल सेंटर के अभाव में पार्क या स्कूल में जाकर बुकिंग कराने में ही समय निकल जाता है.

अजय केशरी, अध्यक्ष आधार शिला

अधिकतर संस्थाएं संदर्भहीन प्रस्तुतियां कराती हैं. सोशल मीडिया के दौर में रंगकर्म अपना अस्तित्व बचाने के लिए जूझ रहा है. इसलिए दर्शक भी थिएटर देखने से बचते हैं.

प्रवीण शेखर, निदेशक बैकस्टेज

अब छोटी-छोटी संस्थाएं प्रोजेक्ट को निपटाने के अंदाज में लगी रहती है. इससे प्रस्तुतियों में दम नहीं होता. इसका असर प्रतिष्ठित संस्थाओं पर पड़ता है. दर्शक पहले से ही धारणा बना लेते हैं और प्रस्तुति देखने नहीं जाते.

सनी गुप्ता, अथर्व

Posted By: Vijay Pandey