नक्सल इलाक़ों में 'पोटा केबिन' स्कूल
एक तरफ जहाँ नक्सल विरोधी अभियान में सुरक्षा बल सुदूर इलाक़ों में स्थित स्कूलों में अपना पड़ाव डाल देते हैं, वहीं माओवादी भी स्कूलों को विस्फोट से उड़ा देते हैं।
यही वजह है कि छत्तीसगढ़ के बस्तर संभाग में बीजापुर और दंतेवाड़ा के लगभग 200 से भी ज़्यादा ऐसे स्कूल हैं, जो पिछले कुछ सालों से बंद पड़े हैं।अब सरकार ने नक्सल प्रभावित इलाक़ों में पक्के भवनों की जगह स्कूलों के कच्चे भवनों का निर्माण करने का फ़ैसला लिया है। इन कच्चे भवनों को पोटो केबिन के नाम से जाना जाता है।राज्य के जनजातीय कल्याण मंत्री केदार कश्यप का कहना है कि हिंसाग्रस्त इलाक़ों में बहुत सारे स्कूली भवन माओवादियों ने ध्वस्त कर दिए हैं।कुछ का फिर से निर्माण कर दिया गया है, जबकि बहुत सारे ऐसे स्कूल हैं, जिन्हें फिर से बनाया नहीं जा सकता है। वह कहते हैं कि यह क्षतिग्रस्त स्कूल घोर नक्सल प्रभावित इलाक़ों में स्थित हैं, जहाँ जाने से ठेकेदारों और शिक्षाकर्मियों ने भी हाथ खड़े कर दिए हैं।
इसलिए बस्तर संभाग के कई इलाक़ों में पोटा केबिन स्कूलों का निर्माण किया जा रहा है, जहाँ पर नक्सल प्रभावित इलाक़ों से बच्चों को आवासीय स्कूल की सुविधा उपलब्ध कराई जा रही है।
दावादंतेवाड़ा के कारली स्थित एक ऐसा ही पोटा केबिन स्कूल है, जहाँ जिले के सुदूर जंगली इलाक़ों के बच्चे जमा हैं।यह स्कूल आम स्कूलों से अलग है या यूँ कहा जाए कि इनका भवन आम स्कूलों की तरह नहीं है। इस स्कूल की दीवारें बांस की चटाई से बनी हुईं हैं जबकि इसकी छत टीन की है।ऐसा माना जा रहा है कि इस स्कूल को अब किसी से ख़तरा नहीं है। अब यहाँ ना सुरक्षा बल के जवान डेरा डालेंगे और ना ही माओवादी इसे अपना निशाना ही बनाएँगे।नक्सली हिंसा में स्कूलों को हो रहे नुक़सान को ध्यान में रखते हुए सरकार ने अब इस सुदूर अंचल में कच्चे भवनों के स्कूल यानी पोटा केबिन स्कूल का निर्माण करना शुरू कर दिया है।प्रशासनिक अधिकारी नागेश कहते हैं कि पोटा स्कूलों में चटाई की दीवारें और टीन की छत आसानी से खोली जा सकती हैं। वे कहते हैं, "इन्हें खोलकर दूसरी जगह ले जाया जा सकता है। कल पुर्जों से इन्हें जोड़-जोड़कर कमरों की शक्ल दी गई है। सिर्फ़ दंतेवाड़ा में इस तरह के 10 पोटा केबिन स्कूल संचालित हैं, जबकि इस तरह के 32 और स्कूलों के निर्माण का काम चल रहा है."
मंज़ूरीसरकार ने सिर्फ़ दंतेवाड़ा ज़िले में 42 पोटा केबिन स्कूलों को मंज़ूरी दे दी है। भारत सरकार के सर्व शिक्षा अभियान के तहत संचालित आवासीय और ग़ैर आवासीय ब्रिज कोर्स भी एक निश्चित अवधि यानी सिर्फ़ 18 माह तक के लिए ही संचालित किए जा रहे थे।नक्सलियों और सरकार के बीच फंसे सुदूर इलाक़ों के बच्चे प्राथमिक और माध्यमिक स्तर तक पहुँचते-पहुँचते अपनी पढाई अधूरी छोड़ दिया करते थे।दंतेवाड़ा के कलक्टर ओपी चौधरी का कहना है कि दंतेवाड़ा और बीजापुर भारत के दो मात्र ऐसे ज़िले हैं, जहाँ सरकार ने ब्रिज कोर्स को स्थायी रूप से चलाने की स्वीकृति दे दी है।बीबीसी से बात करते हुए उन्होंने कहा, "18 माह के बाद बच्चे पढाई छोड़ कर ग़लत राह पर चले जाते थे। यह मामला हमने भारत सरकार के समक्ष उठाया और सरकार ने भारत में सिर्फ़ दो ज़िलों में स्थायी रूप से आवासीय ब्रिज कोर्स चलाने की अनुमति और पैसे देने का फ़ैसला किया। अब पहली से लेकर आठवीं तक के बच्चे इन पोटा केबिन में बने आवासीय स्कूलों में रहकर पढाई पूरी कर रहे हैं."
दंतेवाड़ा के कारली में स्थित पोटा केबिन स्कूल की तर्ज़ पर ही ज़िले के कोंटा, एर्राबोर, मराईगुडा, कुआकोंडा, हितामेटा और रोकेल में भी इसी तरह के पोटा केबिन बनाए गए हैं जहाँ अंदरूनी क्षेत्रों से आए बच्चों को रखा गया है।
सरकार का मानना है कि बांस की चटाई से बने इन स्कूलों को नक्सली अपना निशाना नहीं बनाएँगे। कम से कम दंतेवाड़ा के कलक्टर ओपी चौधरी का तो यही मानना है।
वे कहते हैं, "नक्सलियों को पक्के सीमेंट के बने स्कूली भवनों से आपत्ति है। वे मानते हैं कि इन भवनों का इस्तेमाल सुरक्षा बलों को ठहराने के लिए किया जा सकता है, इसलिए वे इन्हें अपना निशाना बनाते है। हमें जो ख़बरें मिल रहीं है, वो ये हैं कि नक्सलियों को इन कच्चे पोटा केबिन स्कूलों से कोई आपत्ति नहीं है। शिक्षा को लेकर भी नक्सलियों में कोई नकारात्मक रवैया नहीं है."
सरकार ने पोटा केबिन स्कूलों की तरफ़ बच्चों को आकर्षित करने के लिए खाना, कपड़े, किताबों के अलावा 750 रूपए बतौर छात्रवृति भी देना शुरू कर दिया है।