जिस सृजनकर्ता ने अपनी उत्कृष्ट रचना के हर घटक को क्षमताओं से भर दिया है उसे देखकर उसकी कलाकारिता को देखकर दंग रह जाना पड़ता है।


कानपुर। संसार में अब तक मनुष्य कृत जितने भी यंत्र उपकरण बने हैं, उन सभी की तुलना में सृष्टा की अनुपम संरचना 'मानवीय काया' हर दृष्टि से अत्यधिक अद्भुत एवं आश्चर्यजनक है। इसका एक-एक कण इतनी विशेषताओं से युक्त है कि उसकी गरिमा बखानने और यश गाथा गाने का कभी अंत नहीं हो सकता। इसी प्रकार जिस सृजनकर्ता ने अपनी इस उत्कृष्ट रचना के हर घटक को जितनी क्षमताओं से भर दिया है, उसे देखकर उसकी कलाकारिता को देखकर दंग रह जाना पड़ता है।

'आत्मा' ही हमारे जीवन का ऑपरेटर


हम सभी जानते हैं कि विज्ञान के उच्चस्तरीय प्रायोजनों में काम आने वाले कंप्यूटर आज के युग में सर्वश्रेष्ठ माने जाते हैं, लेकिन इस सत्य को भी समझना अति आवश्यक है कि सबकुछ कंप्यूटर ही नहीं करता। कंप्यूटर को चलाने के लिए भी एक मानव ऑपरेटर की जरूरत पड़ती है। इसी प्रकार मानव के सिर में भी एक 'प्राकृतिक कंप्यूटर' अथवा मस्तिष्क है, उसका उपयोग करने के लिए भी किसी ऑपरेटर की आवश्यकता पड़ती है और वह ऑपरेटर है 'आत्मा' जो दोनों आंखों के बीच के स्थान अर्थात् भृकुटी में विराजमान होती है।

भृकुटी के बीच बैठी आत्मा ही चलाती है शरीर का ये संसार


आत्मा जब तक देह में रहती है, तब तक मस्तिष्क कार्य करता है। आत्मा जब देह छोड़कर निकल जाती है, तो धीरे-धीरे मस्तिष्क की क्रिया भी रुक जाती है। जब मस्तिष्क की क्रिया में आत्मा का निवास नहीं रहता तो उस अवस्था को मेडिकल साइंस की भाषा में 'चिकित्सकीय मृत्यु' कहते हैं। आत्मा शरीर के प्रत्येक अव्यय का इस्तेमाल अपनी मर्जी के मुताबिक कर सकती है, मसलन- कंठ में रहने वाली स्वरतंत्री का उपयोग कर वह कोई भी राग सुना सकती है, नाक के द्वारा गंध-सुगंध को पहचानती है, हृदय का उपयोग वह पानी को ऊपर चढ़ाने वाले एक पंप की तरह करती है। इस प्रकार, हमारी जानकारी से परे न जाने कितने ही अवयव देह में हैं, जिनका उपयोग भृकुटी के बीच बैठी हुई आत्मा खुद ही करती रहती है।

तीन प्रकार के होते हैं कर्म


हमारी देह में तीन रूप के कर्म चलते हैं- सहज कर्म, देह का नित्य कर्म और इच्छा कर्म. आत्मा के बारे में गीता कहती है: ।। अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ता: शरीरण:। अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत ।। अर्थात् इस नाशरहित अप्रमेय नित्य देही आत्मा के सब शरीर नाशवान हैं इसलिए हे अर्जुन तुम युद्ध करो।। हमें यह समझना चाहिए कि आत्मा देह सहित हो या देह रहित, वह प्रकाश स्वरूप, सत्य, अनादि, अविनाशी, अप्रमेय, अविभाज्य और शाश्वत है।

राजयोगी ब्रह्माकुमार निकुंज जी

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Posted By: Chandramohan Mishra