तीन रथों पर आरुढ़ देवताओं में सबसे आगे भगवान जगन्नाथ मध्य में सुभद्रा तथा पीछे बलराम का रथ होता है। जगन्नाथ जी का रथ इतना विशाल होता है जैसे कोई छोटा पर्वत हो। संपूर्ण रथ स्वर्णमंडित होता है।

रथयात्रा के दौरान भगवान जगन्नाथ, सुभद्रा और बलभद्र, तीनों भाई-बहन स्वयं चलकर भक्तों के बीच आते हैं और समानता व सद्भाव का संदेश देते हैं।

तीन रथों पर आरुढ़ देवताओं में सबसे आगे भगवान जगन्नाथ, मध्य में सुभद्रा तथा पीछे बलराम का रथ होता है। जगन्नाथ जी का रथ इतना विशाल होता है, जैसे कोई छोटा पर्वत हो। संपूर्ण रथ स्वर्णमंडित होता है। इसमें घंटा, घडि़याल, किंकिंड़ी आदि बजते रहते हैं। रथ की छतरी अत्यंत ऊंची एवं विशाल होती है। इन पर भांति-भांति की पताकाएं फहराती रहती हैं। हजारों आदमी उस रथ में खड़े हो सकते हैं।

सैकड़ों मनुष्य स्वच्छ, सफेद चावरों को डुलाते रहते हैं। संपूर्ण रथ विविध प्रकार के चित्र पटों से सजा होता है। आगे बहुत लंबे व मजबूत रस्से बंधे होते हैं, जिन्हें भक्तगण खींचते हैं। तीनों रथों को गुंडीचा भवन तक भक्तगण अपने हाथों से ही खींचकर ले जाते हैं। उस समय का दृश्य बहुत मनोहारी होता है।

बाल भोग व औषधि का अर्पण


आषाढ़ शुक्ल द्वितीया को प्रात:काल रथ सिंहद्वार पर लाकर खड़ा किया जाता है, जिसमें भगवान पधारते हैं। जिस समय सिंहासन से उठाकर भगवान रथ में बिठाए जाते हैं, उसे पांडु विजय कहते हैं। भगवान के विशेष सेवक भगवान के स्वास्थ्य का विशेष ख्याल रखते हैं। उन्हें न सिर्फ मिष्ठान्न का बाल भोग लगाया जाता है, बल्कि उन्हें औषधि भी अर्पित की जाती है।

भगवान किसी कीमती वस्तु के नहीं, बल्कि भाव के भूखे होते हैं। कहा जाता है कि जब रथ चलने लगता है, उस समय भक्तगणों के शरीर से रोमांच, कंपन, अश्रु, वैवर्ण तथा स्वर विकृति आदि सात्विक विकार उदय होने लगते हैं। भक्तगण कभी जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा के रथ के सामने नृत्य करते हैं, तो कभी ताली बजाते हैं। रथ बलगंडी स्थान पर जाकर खड़ा हो जाता है। वहां भोग लगाने का नियम है।

उस स्थान पर जगन्नाथ जी भोग का रसास्वादन करते हैं। राजा-रंक, धनी-गरीब, स्त्री-पुरुष बिना किसी भेदभाव के अपनी-अपनी श्रद्धा के अनुसार भगवान को भोग लगाते हैं। रास्ते के दाएं-बाएं, आगे-पीछे वाटिका में जहां भी जिसे स्थान मिलता है, वहीं भोग रख देता है। उस समय लोगों की भारी भीड़ हो जाती है।

भव्य है मंदिर


जगन्नाथ के विशाल मंदिर के भीतर चार खंड हैं। प्रथम भोगमंदिर, जिसमें भगवान को भोग लगाया जाता है, द्वितीय रंगमंदिर, जिसमें नृत्य-गायन आदि होते हैं। तृतीय सभामंडप, जिसमें दर्शक गण (तीर्थ-यात्री) बैठते हैं और चौथा अंतराल है।

मंदिर समुद्रतट से 7 फलरंग दूर है। यह सतह से 20 फीट ऊंची एक छोटी-सी पहाड़ी पर स्थित है। यह गोलाकार पहाड़ी है, जिसे नीलगिरि कहकर सम्मानित किया जाता है। अंतराल की प्रत्येक तरफ एक बड़ा द्वार है, उनमें पूर्व का सबसे बड़ा और भव्य है। प्रवेशद्वार पर एक बृहत्काय सिंह है। इसीलिए इस द्वार को सिंह द्वार कहा जाता है।

महाप्रसाद की महिमा

जगन्नाथपुरी में जाति-धर्म, ऊंच-नीच के आधार पर कोई भेद नहीं किया जाता है। दूसरी बात यह है कि जगन्नाथ के लिए पकाए गए चावल को लेने में भी कोई विभेद नहीं किया जाता है। जगन्नाथ को चढ़ाए गए चावल को कभी अशुद्ध नहीं माना जाता है। इसे 'महाप्रसाद' की संज्ञा दी गई है।

तीनों रथ तीर्थ यात्रियों द्वारा खींचे जाते हैं तथा भावुकतापूर्ण गीतों से उत्सव भी मनाया जाता है। यात्रा के समय भक्तगण जो प्रार्थना करते हैं, उसका भावार्थ यह है कि हे ईश्वर, आपने यह अवतार प्राणियों के ऊपर दया की इच्छा से ग्रहण किया है। इसलिए आप प्रसन्नतापूर्वक पधारिए। ऐसा कहकर मंगलगीत के साथ जय ध्वनि की जाती है। पुन: वाद्य, नृत्य-गीत के साथ रथ-यात्रा संपन्न हो जाती है।

-गिरिजाशंकर शास्त्री

(लेखक बीएचयू के ज्योतिष विभाग में प्रोफेसर हैं)

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Posted By: Kartikeya Tiwari