इस शहर के सकरे रास्तों पर जिंदगी इतनी टफ भी हो सकती है जितनी हमने कभी सोची ना हो. सैकड़ों लोग दो वक्त की रोटी कमाने के लिए कभी ना खत्म होने वाली मशक्कत करते हैं. शबरी एक ऐसी सिचुएशन में फंसी एक औरत की कहानी है जो अपनी फैमिली के साथ हुए अन्याय का बदला लेने के लिए मर्डर का सहारा लेती है. इस तरह की स्टोरी के साथ किसी फिल्म को दिल को छू लेना चाहिए मगर अफसोस शबरी ऐसा नहीं कर पाई.

शबरी (ईशा कोप्पिकर) एक फ्लोर मिल चलाती है. उसके परिवार में एक शराबी बाप, एक सैक्रिफाइस करने वाली मां और एक जिद्दी भाई बंद्या है. वह अपने हालात और अपने भाई से नाराज है, जो मटका खेलकर जल्दी पैसा कमाना चाहता है. शबरी की लाइफ में बदलाव उस वक्त आता है जब उसका भाई बंद्या पुलिस के चक्कर में फंस जाता है और पुलिस कस्टडी में टॉर्चर सहते-सहते उसकी मौत हो जाती है. इस गुस्से से तमतमाई हुई और अपनी फैमिली की इस ट्रैजिडी को ना बर्दाश्त कर पाने वाली शबरी एक पुलिसवाले को मार देती है. मुराद (राज अर्जुन), एक लोकल मटका खेलने वाला, शबरी का साथ देता है और उसकी कानून और लोकल डॉन के चंगुल से छूटने में मदद करता है. इन सबकी वजह से उसका भी मर्डर हो जाता है और वह फिर से बदला लेने की कसम खाती है. फिल्म में सारे इंग्रीडिएंट्स पॉवरफुल स्टोरीलाइन के थे लेकिन अफसोस...


फिल्म का सारा कैनवस काफी डिप्रेसिंग तरीके से पेंट किया गया है आपको ये देखकर ही डिप्रेशन फील होने लगेगा. बैकग्राउंड म्यूजिक भी बेकार है. जाहिर है कोई भी डिप्रेशन फील करने सिनेमा हॉल नहीं जाता.


फिल्म में कुछ अच्छे सीन हैं जो आपको लुभा सकते हैं लेकिन फिल्म में कंसिस्टेंसी की कमी है. ईशा कोप्पिकर की कोशिश अच्छी है लेकिन उनकी सादी और बदशक्ल दिखने की कोशिश पूरी तरह झलकती है. मेकअप से उन्हें डार्क दिखाने की कोशिश की गई है लेकिन हर वक्त उनकी आईब्रोज का शेप परफेक्ट रहा. मेन विलेन के तौर पर प्रदीप सिंह रावत सही दिखे लेकिन उनका कैरेक्टर उलझा हुआ था. फिल्म में कई सिचुएशन आपके सामने क्वेशचन मार्क छोड़ जाती हैं, जैसे शबरी इतनी अच्छी शूटर कैसे बन गई? जेल से निकलते ही उसके पास गन कहां से आ गई? और भी कई...फिल्म को वाकई कई मायनों में सही ट्रीटमेंट की जरूरत थी.

Posted By: Garima Shukla