सभी देवियों की पूजा-अराधना में इस देवी की अर्चना तथा व्रत आदि का अलग महत्व है जिसके करने से व्रती के परिवार में ’दाह ज्वर पीत ज्वर दुर्गन्ध युक्त फोड़े नेत्रों के सभी रोग शीतला के फुंसियों के चिह्न तथा शीतला जनित सारे कष्ट-रोग दूर हो जाते हैं।

भारतवर्ष में शीतला माता का व्रत केवल प्रत्येक वर्ष चैत्र माह के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को किया जाता है। यह देवी दिगम्बरा हैं, जो गर्धव यानी गधे पर सवार रहती हैं, मार्जनी यानि झाड़ू एवं नीम के पत्तों से अलंकृत रहती हैं तथा हाथ में शीतल जल का कलश रखती हैं।

सभी देवियों की पूजा-अराधना में इस देवी की अर्चना तथा व्रत आदि का अलग महत्व है, जिसके करने से व्रती के परिवार में ’दाह ज्वर, पीत ज्वर, दुर्गन्ध युक्त फोड़े, नेत्रों के सभी रोग, शीतला के फुंसियों के चिह्न तथा शीतला जनित सारे कष्ट-रोग दूर हो जाते हैं।

यह व्रत लोकाचार के अनुसार होली के बाद पड़ने वाले पहले सोमवार अथवा गुरूवार को भी किया जाता है, शुक्रवार को भी इसके पूजन का विधान है, परन्तु रविवार, शनिवार अथवा मंगलवार को शीतला माता का पूजन नहीं करना चाहिए, यदि अष्टमी तिथि इन चारों में पड़ जाए तो पूजन अवश्य करना चाहिए। स्कन्द पुराण में चार महीनों में इस व्रत को करने का विधान है।

विशेष:- प्रत्येक जातक पर जन्म के बाद शीतला का प्रभाव निश्चित रूप से होता है, इससे बच्चों में चेचक, बुखार, दाह युक्त फोड़े होते है। गधे की लीद की गंध से फोड़ों की पीड़ा में आराम मिलता है। इस रोग का प्रकोप जिस घर में होता है, वहां घर में झाड़ू लगाना, अन्न आदि की सफाई करना वर्जित माना गया है, इसीलिए अन्न साफ करने की सूप रोगी के सिरहाने रख दी जाती है, नीम के पत्ते रखने से भी रोगी को काफी हद तक आराम मिलता है।

बासी भोग का महत्व

व्रत के लिए पूर्वविद्धा अष्टमी ली जाती है, इस दिन प्रातः काल शीतल जल से स्नान कर संकल्प करना चाहिए, इस दिन शीतलाष्टक का पाठ करना चाहिए। इस व्रत की विशेषता यह है कि इसमें शीतला देवी को भोग लगाने वाले सभी पदार्थ एक दिन पूर्व ही बना लिए जाते हैं अर्थात् शीतला माता को एक दिन का बासी (शीतल) भोग लगाया जाता है, इसलिए इसे बसौड़ा व्रत भी कहा जाता है। माता को शीतल भोजन पसंद है। ऐसा माना जाता है कि बासी भोजन का भोग लागने पर शीतला जनित रोगों से प्रभावित लोगों को राहत मिलती है और वे जल्दी इससे मुक्त हो जाते हैं।   

जिस दिन व्रत रहता है उस दिन चूल्हा नहीं जलाया जाता है। बसौड़ा के दिन प्रातः एक थाली में पूर्व संघ्या में तैयार नैवेध, हल्दी, दही, धूपवत्ती, जल का पात्र, चीनी, गुड़ और अन्य पूजन आदि सामान सजाकर परिवार के सभी सदस्यों के हाथ से स्पर्श कराकर शीतला माता के मन्दिर जाकर पूजन करना चाहिए, होली के दिन बनाई गई गूलड़ी की माला भी शीतला माता को अर्पित करने का विधान है। शीतला माता के पूजन के उपरान्त गर्दभ (गधा) का भी पूजन कर मन्दिर के बाहर काले कुत्ते के पूजन एवं गर्दभ को चने की दाल खिलाने की भी परम्परा है। 

— ज्योतिषाचार्य पं राजीव शर्मा

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Posted By: Kartikeya Tiwari