आध्यात्मिकता सुगंध है लौकिक जीवन ठीक से विकसित हो तो अनिवार्यत: आ जाती है इसलिए आध्यात्मिकता को कोई जीवन न समझे। वह लौकिक जीवन की ठीक से जीने की निष्पत्ति है।

 


 

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प्रश्न: क्या आध्यात्मिक और लौकिक जीवन भिन्न-भिन्न हैं या एक?

यहां अब भिन्न-भिन्न माने गए हैं, बल्कि विरोधी माने गए हैं। जो लौकिक को छोड़े वही आध्यात्मिक हो सकता है लेकिन यह मान्यता शत-प्रतिशत भ्रांत और गलत है। आध्यात्मिक और लौकिक जीवन विरोधी तो हैं ही नहीं, भिन्न-भिन्न भी नहीं। आध्यात्मिकता लौकिक जीवन को सम्यक रूप से जीने से उपलब्ध होने वाला गुण है। वह कोई जीवन नहीं है। वह जो लौकिक जीवन को ठीक से जीना सीख जाता है, उसे आध्यात्मिकता उपलब्ध होती है। जो लौकिक जीवन को  ठीक से नहीं जी पाता है, उसे गैर आध्यात्मिकता उपलब्ध होती है। 

 लौकिक जीवन की ठीक से जीने का मार्ग है आध्यात्मिकता

आध्यात्मिकता सुगंध है, लौकिक जीवन ठीक से विकसित हो तो अनिवार्यत: आ जाती है इसलिए आध्यात्मिकता को कोई जीवन न समझे। वह लौकिक जीवन की ठीक से जीने की निष्पत्ति है। वह उसका फल है, विरोध तो बिल्कुल नहीं है लेकिन विरोध माना गया है और उसके कारण आध्यात्मिक जीवन पैदा भी नहीं हो सका। क्योंकि जो लौकिक जीवन जीने के ढंग से ही निकलने वाली सुगंध थी, उसे हमने इस जीवन की विरोधी मान लिया। 

संसार छोड़ने से कोई नहीं जाता प्रभु के पास 


अब तक यही समझा गया कि जिसे प्रभु की तरफ जाना है, उसे संसार को छोड़कर ही जाना पड़ेगा और संसार छोड़ना ही आध्यात्मिकता की पूरी प्रक्रिया हो गई कि हम कितना संसार छोड़ गए। संसार छोड़ने से कोई प्रभु के पास नहीं जाता। संसार छोड़ने से मनुष्य और अहंकारी बनता है, लेकिन उन्हें कोई आध्यात्मिक जीवन उपलब्ध नहीं होता। जितना वह छोड़ता है, जितना त्याग करता है, उतना उसको लगता है कि उसका मन मजबूत और प्रगाढ़ एवं प्रबल होता है। इसलिए संन्यासी के पास जितना प्रगाढ़ अहंकार होता है, उतना अहंकार साधारण गृहस्थ के पास कभी नहीं हो सकता है। 

लौकिक जीवन के अतिरिक्त नहीं होता दूसरा जीवन

यही वजह है कि दुनिया के सारे धर्म एक-दूसरे के शत्रु से सिद्ध हैं क्योंकि तथाकथित धार्मिक आदमी अहंकार से भरा है। यह जो हमारी मान्यता रही है कि हम लौकिक जीवन से विपरीत आध्यात्म को समझें, उसने अहंकारी जीवन पैदा किया, उसने आध्यात्मिक जीवन पैदा नहीं किया। मेरी वैसी समझ नहीं है। मैं मानता हूं कि लौकिक जीवन ही अकेला जीवन है। कोई और जीवन होता नहीं, न हो सकता है। गलत जी सकते हैं और ठीक जी सकते हैं लौकिक जीवन, यह दूसरी बात है लेकिन लौकिक जीवन के अतिरिक्त कोई जीवन नहीं होता। 

घर छोड़ने का मतलब नहीं है लौकिक जीवन त्यागना 


एक आदमी घर छोड़कर चला गया तो आप समझते हैं कि लौकिक जीवन छोड़ दिया तो आश्रम बनाएगा, तो आश्रम में जीएगा और रहेगा और लौकिक जीवन नई व्यवस्था से फिर गतिमान होगा। एक आदमी धन कमाना छोड़ देगा तो भीख मांगने का आयोजन करेगा और लौकिक जीवन यहीं से शुरू होता है। यह बड़े आश्चर्य की बात है कि धन कमाना तो लौकिक जीवन है लेकिन दूसरे धन कमाते हैं तो उनसे मांगना लौकिक जीवन नहीं है। लौकिक जीवन के बाहर से जीने का कोई उपाय नहीं है। खाएंगे तो, पीएंगे तो, उठेंगे तो, चलेंगे तो, लौकिक जीवन। तो लौकिक जीवन के बाहर जाइएगा कैसे? एक आदमी दुकान चलाएगा, दूसरा आदमी आंदोलन चलाएगा और दुकान चलाने वाला आदमी जितना दुकान से बंधा होता है, आंदोलन चलाने वाले उस दुकान चलाने वाले से कम बंधे नहीं होते। पकड़ उतनी ही, जकड़ उतनी ही है, सुखी-दुखी उतने ही, आंदोलन सफल होता है तो सुखी होते हैं, सफल नहीं होता है तो दुखी होते हैं। 

ढंग से जीवन जीना ही आध्यात्म

तो सवाल कुल इतना ही रह जाता है कि लौकिक जीवन ठीक से जीआ जाए या गलत ढंग से जीया जाए? ठीक से जीवन जीआ जाता है, उसको मैं आध्यात्मिक कहता हूं। कैसे जो ठीक से जीता है लौकिक जीवन को, उसे मैं संन्यासी कहता हूं जो ठीक से नहीं जीता, उसे मैं संसारी कहता हूं। शायद ठीक से जीने वाला व्यक्ति न तो जीवन को छोड़ता है, न भाता है और जब उन्हें कोई जीवन छोड़ता या भागता हुआ दिखाई पड़ता है तो हम समझते हैं कि वह दौड़ रहा है और भाग रहा है। कर्म के पीछे अकर्म का भाव धीरे-धीरे निर्मित हो जाता है। तब आप जीते हैं, बहुलता से जीते हैं, विविधता से जीते हैं और गहराई से जीते हैं लेकिन तथाकथित जीने की कोई पकड़ आपके ऊपर नहीं रह जाती। ऐसे व्यक्ति को मैं संन्यासी कहता हूं, आध्यात्मिक खोजी कहता हूं और ऐसे व्यक्ति के जीवन में वह धीरे-धीरे उतरना शुरू होता है, जिसका नाम आध्यात्म है, इसका लौकिक जीवन से कोई विरोध नहीं होता। 

ओशो 

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Posted By: Swati Pandey