कभी लोगों की भीड़ से घिरा रहने वाला और अखबारों के पन्नों पर आए दिन छाया रहने वाला इंसान आज दो मीडिया वालों को देखकर इतना खुश हो जाता है मानो उसे कुछ खास मिल गया हो.


वो खुशी उनकी आंखों में छलक आई थी। अचानक शहर के ही एक नाट्यकर्मी से जब हम उनकी बात फोन पर कराते हैं तो मानो जैसे उनकी मुंहमांगी मुराद पूरी हो गई। शायद इसलिए कि यह शख्स जो कभी रंगमंच और टीवी फिल्मों की दुनिया का सितारा था, वक्त के थपेड़ों ने उसे अकेला कर दिया है। बीबी नातियों वाली का मोटू चौकीदार, उड़ान का हवलदार, अक्कड़ बक्कड़ का अक्कड़ या फिर स्वदेश फिल्म का सरपंच। 1960 से 2005 तक अदायगी का सफर तय करने वाले बीडी गौड़ की बीमारी ने उनके कॅरियर पर क्या ब्रेक लगाया कि मानो जमाने ने भी उनसे मुह फेर लिया। यही वो कसक है जो बीडी गौड़ को हर पल सताती है। मुम्बई में मेरी ही धूम होती


आलमबाग के सुजानपुरा मोहल्ले में, पत्नी विमला गौड़ के साथ जिंदगी से लड़ रहे बीडी गौड़ से जब हम मुलाकात करने पहुंचे तो सबसे पहले उन्होनें यही कहा कि चलिये कोई तो आया मुलाकात करने, वरना तो हमें सब भूल ही गये। जिस संस्था के साथ हमने सालों काम किया, जिन लोगों के साथ कितने अच्छे और बुरे पल गुजारे वो कलाकार अब मुझे याद भी नहीं करते।

मैं कॉमेडी किरदार बहुत निभाता था और लोगों को खूब हंसाता था, लेकिन अब तो यादें भी धुंधली होती जा रही हैं। 2005 से पैरालिसिस का शिकार हो चुके बीडी गौड़ भले ही बेहद कमजोर हो चुके हैं लेकिन इस सवाल पर कि क्या वो आज भी एक्टिंग करना चाहते हैं वह पूरे जोश में कहते हैं बिल्कुल। अगर ऊपर वाले ने मुझे यह बीमारी न दी होती तो मुम्बई में आज मेरी धूम होती। लोग मुझे रोल देने के लिए मेरे पास आते, लेकिन फिलहाल तो यह जिन्दगी कुछ इस तरह बसर हो रही है मानों किसी चमत्कार के इंतजार में रात दिन गुजर रहे हैं। धुंधली यादों की रहगुजरउनकी बीमारी का असर सिर्फ उनके शरीर पर ही नहीं उनकी जुबान और जेहन पर भी हुआ है। डॉक्टर और अपनों की सेवा से वो अब लकड़ी के सहारे चलने लगे हैं, बोलते भी हैं, लेकिन यादों पर कुछ ऐसी परत पड़ी है कि काफी हटाने पर भी नहीं हटती। कई ऐसे सवाल जो कभी उनकी जिन्दगी का हिस्सा हुआ करते थे के जवाब देने में वो शून्य में देखने लगते हैं।

बहुत जोर देने के बाद फिर वो पत्नी को बुलाते हैं और उनसे कहते हैं जरा बताना तो और कौन कौन से किरदार मैंने निभाए हैं? लम्बे लम्बे डायलाग जेहन में बिठा कर मंच और परदे पर एक सांस में बोलने वाले बीडी गौड़ को अगर कुछ साथियों का प्यार मिलता तो शायद यादों की रहगुजर इतनी भी धुंधली ना होती। नाटकों से शुरुआतअपने रंगमंच के सफर के बारे में वह बताते हैं कि सात आठ साल की उम्र से ही पता नहीं कैसे अभिनय का चस्का सिर चढ़ गया। पहले शीशे के सामने खड़े होकर दूसरों की नकल उतारता था। फिर किसी ने बताया कि सदर में 'रामरस आनंद सभाÓ नाम की एक संस्था है जिसमें कोई रमली प्रसाद हैं जिन्हें ऐसे लोगों की तलाश है जो एक्टिंग कर लेते हों, उनसे मुलाकात हुई तो पता चला वह ड्रामा के डायरेक्टर हैं। कई नाटकों में  हिस्सा लिया।
उर्मिल कुमार थपलियाल और डॉक्टर अनिल रस्तोगी की संस्था दर्पण से जुड़ा। 'यहूदी की बेटीÓ में जब सेट वगैरह चेंज हो रहा होता था तो दर्शकों को गुदगुदा कर बांधे रखने का जिम्मा मेरे ही सिर होता था। उसी दौर में कई सालों तक साक्षरता निकेतन में कठपुतली का संचालन भी किया। इसके बाद दूरदर्शन से जुड़ गया। लखनऊ दूरदर्शन के पहले धारावाहिक बीबी नातियों वाली, बूंद और समुद्र, बानू बेगम, नीम का पेड़ में काम किया। टेलीफिल्म मृत्यु दंड, सूर्य  की पहली किरण से अंतिम किरण तक, के अलावा मुज्जफर अली साहब की 'एक सिगरेटÓ में भी मेरा किरदार दर्शकों को खासा पसंद आया था। गांव का सरपंचफिर एक दौर ऐसा भी आया कि आशुतोष गोवारिकर ने स्वदेश का ऑफर दिया। फिल्म में सरपंच की भूमिका भी ठीक-ठाक थी। उस दौरान एक स्कूल जॉब कर रहा था, फिल्म की खातिर नौकरी को लात मार कर मुम्बई पहुंच गया। फिल्म और मेरी भूमिका दोनों लोगों को पसंद आई। मुझे कई फिल्मों के ऑफर भी मिलने लगे। लखनऊ आया कि यहां थियेटर के पुराने दोस्तों के साथ सफलता का जश्न मना सकूं पर सोचा था कि अब जिन्दगी बदल जाएगी लेकिन किस्मत को कुछ और ही मंजूर था। मेरे शरीर के दाहिने हिस्से में पैरालिसिस हो गया। जो पैसे थे वह खत्म हो गए, रोजी-रोटी का कोई और सहारा था नहीं बस कुछ साल पहले कुछ दोस्तों की मदद से पेंशन बंध गई थी। उसी से मियां-बीबी की गुजर बसर हो रही है, लेकिन दो हजार रुपए में आज क्या पूरा होता है यह सभी जानते हैं। वक्त ने किया, क्या हसीं सितम
एक समय था जब अपनी एक्टिंग के बल पर बीडी गौड़ को शहर भर के लोग जानते थे। बीडी गौड़ इस शहर के अकेले ऐसे कलाकार नहीं हैं जो वक्त की गर्त में खो रहे हैं। कई ऐसे और भी नाम हैं जो आज अपनी जिन्दगी का गुजारा छोटी सी गुमटी चला कर कर रहे हैं तो कोई जड़ी बूटी बेच कर। हरि शंकर त्रिपाठी जो 35 साल तक हर जगह घूम घूम कर नौटंकी की कला को पहचान दिलाते रहे मगर आज उनकी पहचान कहीं खो चुकी है। शीतला द ग्रेट पार्टी की शुरुआत करने वाले हरि शंकर 6 साल से बिस्तर पर हैं क्योंकि उनका एक्सीडेंट में एक पैर और एक हाथ बेकार हो चुका है। कभी अमर सिंह राठौर को मंच पर अपनी अदाएगी से जीवंत करने वाले हरि शंकर छोटी सी पान की दुकान पर बैठ कर अपनी जिन्दगी गुजार रहे हैं। उन्होंने कई बार विकलांग और कलाकार यूनियन की पेंशन के लिए एप्लाई किया, लेकिन कोई उनकी पुकार सुनने वाला नहीं। मंच का सारा साजो समान आज भी वो अपने पास हिफाजत से रखे हैं। कितनी भी मुश्किलें आएं, लेकिन जिन्दगी की उन यादों को वो बेचने की सोचते भी नहीं कि शायद किसी मोड़ पर जब जिन्दगी की शाम हो, तो लोग सब देखकर यह समझ ले कि किसी कलाकार का सामान है। हंसाने की बागडोर रावत के हाथवहीं परमेश्वर रावत भी एक ऐसे ही मंच के कलाकार हैं जिन्हें दर्शकों को हंसाने की बागडोर दी जाती थी। उनके मंच पर आते ही दिग्गजों को भी यही लगता था कि जितनी देर में सेट चेंज होगा दर्शक हॉल से जाएंगे तो नहीं। यानी आज की लैंगवेज में अगर कहें तो परमेश्वर रावत किसी भी बड़े शो के फिलर हुआ करते थे, लेकिन अब उन्हें कोई काम देने वाला नजर ही नहीं आता। वो छह साल से जड़ी बूटियां खोज कर लाते हैं और दवा की दुकानों पर बेच कर घर का खर्च चला रहे हैं। कलाकार एसोसिएशन के अध्यक्ष विजय तिवारी कहते हैं कि यह सही है कि जैसे जैसे वक्त गुजरा कई कलाकारों की पहचान खोती जा रही है। ऐसे में जरुरत है एक ऐसे कदम की जो पुराने कलाकारों के लिए कुछ कर सके जिन्होंने रंगमंच या फिर टीवी की दुनिया में अपना योगदान दिया हो. 

Posted By: Inextlive