महाशिवरात्रि पर महाकुंभ की यात्रा...
सुबह के नौ बज रहे होंगे जब मैं वहां इस उत्साह के साथ दाखिल हुई कि करोड़ों आने वाले लोगों में अब मेरा नाम भी गिना जाएगा. जबर्दस्त एक्साइटमेंट... पहली बार कुंभ दर्शन... वह भी अकेले... सब कुछ मानो मन के मुताबिक था. मैं इतनी ज्यादा खुश थी कि हर दो कदम चलने के बाद होंठ अपने आप लता जी का वह गाना आज मदहोश हुआ जाए रे... गुनगुनाने लगते थे, यह भूलकर कि एक्टे्रस ने किस सिचुएशन में यह सान्ग गाया था. फिर जब मुझे अपने कहां होने का एहसास होता तो मैं चुप हो जाती.
पीठ पर बैग लादे, गले में कैमरा लटकाए मैं पैदल आगे बढ़ रही थी. लेकिन कहां के लिए... नहीं पता था... चारों तरफ एक सा ही रास्ता, एक जैसे ही टैंट्स... मैं रूक गई... जहां रूकी संयोग से सामने ही एक पुलिसमैन दिख गया. मैंने सोचा महानुभाव से पहले संगम का रास्ता पूछते हैं फिर कहीं और घूमने चलते हैं. उन्होंने बहुत ही कायदे से रास्ता बताया... जहां से यह चौराहा खत्म हो रहा है वहां से संगम का रास्ता दिख जाएगा... मैंने उन्हें धन्यवाद दिया और आगे बढ़ गई.
ज्यों ही आगे बढ़ी कुछ बच्चों का झुंड मेरे आगे आ धमका और दे दो दे दो... की रट शुरू. मैं भुनभुनाई यहां भी धंधेबाजी... आंखे तरेरी और फिर आगे बढ़ चली... इतने में पुलिस महानुभाव का बताया हुआ चौराहा कहां और कब बीत गया मैं नहीं समझ पाई... अचानक सामने स्टैंड दिखा जिसपर संगम मार्ग और मुक्ति मार्ग लिखा था. डायरेक्शन दिए होने से मैं जब मैं सीधे ही चलने को लेकर श्योर हो गई तो सोचा क्यों न कैमरे का यूज करना भी अब शुरू कर दूं.
मैं चलने को हुई तब तक उन्होंने सवाल मारा, कहां से आई हैं? मैंने कहा, लखनऊ से... मैं बढऩे को हुई तब तक उन्होंने फिर एक सवाल फेका. क्या करती हैं? पढ़ती हैं या जॉब? जाने क्यों मुझे गुस्सा आने लगा था. मैंने कहा, पत्रकार हूं इसलिए आई हूं ताकि यह देख सकूं कि आप लोग काम ठीक से कर रहे हैं कि नहीं... वह हंसा... और मैं झूठी स्माइल पास कर आगे बढ़ गई. संगम पार जाने के लिए अब पुल दिखने लगा... मैं तेज चलने लगी... पुल पर पहला कदम रखते ही अजीब से महसूस हुआ... लगा मानो कुछ भीतर उतर रहा है... हालांकि पुल पर लोग आ-जा रहे थे लेकिन दो पल रूककर गंगा को देखने का वक्त किसी के पास नहीं था. यह अलग बात है कि पुल पर रूकने और फोटो खींचने की मनाही थी.
अब तक धूप अच्छी निकल आई थी और चलते-चलते गर्मी होने लगी थी. मैं अब वहां थी जहां से संगम बस कुछ ही मीटर दूर था. गंगा किनारे हजारों की भीड़ कोई नहा रहा था... कोई कपड़े बदल रहा था तो कुछ लोग दिल्ली इंसीडेंट पर बात करते हुए भी बगल से गुजरे. घाट के किनारे हर उम्र के पंडित मौजूद थे जो टीका लगाने के नाम पर डुबकी लगाकर आने वाले हर व्यक्ति को बुला रहे थे और मिनिमम फिक्स प्राइस दस रूपया वसूल रहे थे. वहां नारियल, अगरबत्ती और फूल भी बेचा जा रहा था. मैंने भी 20 रुपए खर्च करके ये सब खरीदा और गंगा के घाट पहुंच गई.
अब मैं वहां जाने लगी जहां से संगम के लिए नाव मिल रही थी. मैंने अपना जूता हाथ में ले लिया था क्योंकि बोरियों में भरे बालू की सीढिय़ां उतरना नंगे पांव बहुत अच्छा लग रहा था. अकेले नाव कैसे करती तभी देखा एक फैमिली नाव वाले से बात कर रही थी. उसमें दो पुलिस वाले और बाकी औरतें थीं. मैंने खुद के चलने की बात बताई तो वह मान गए. पुलिस वाले आपस में मशगूल, औरतें अपने में मैं बची अकेले. मैंने नाव वाले से ही बात करनी शुरू कर दी... मैंने उसे अपना परिचय नहीं था लेकिन वह कहे जा रहा था कि यहां बहुत कुछ उल्टा होता है, एक अखबार वाला आया था लेकिन कहीं कुछ नहीं निकला.