आज के दौर में बच्चों की स्टेशनरी पर हर महीने होने वाला खर्चा काफी बढ़ गया है। इस खर्च को दो आईआईटियंस ने कम करने के लिए एक ऐसा तरीका खोज निकाला जिससे नोटबुक्स का खर्च 40 परसेंट तक कम हो गया। कैसे हुआ ये पॉसिबल आइए जानते हैं...


features@inext.co.inKANPUR: आईआईटी रुड़की के दो स्टूडेंट्स शुभम अग्रवाल और अनुभव गोयल के पास अपनी पढ़ाई के बाद काफी खाली वक्त था। ये दोनों के लिए बहुत ही फ्रस्ट्रेटिंग था। लेकिन इन दोनों का कहना है कि इस खालीपन और फ्रस्टे्रशन की वजह से ही दोनों ने अपने इनोवेटिव स्टार्टअप एडिस्टर की शुरुआत की। एक इंटरव्यू के दौरान दोनों ने बताया कि दोनों में ही हमेशा ऑन्त्रप्रेन्योर क्वॉलिटीज थीं और पढ़ाई के बाद वे जॉब न करके कुछ इनोवेटिव करना चाहते थे। वे कहते हैं कि एक ऑन्त्रप्रेन्योर में जो सबसे जरूरी चीज है वो है इंपेशेंस। ये इंपेशेंस ही था जिसकी वजह से उन्होंने अपने फ्री टाइम को प्रोडक्टिवली शुरू कर दिया। ऑनलाइन पोर्टल से नोटबुक्स तक का सफरपढ़ाई के दौरान शुभम और अनुभव ने एक ऑनलाइन पोर्टल शुरू किया जिसका नाम था ऑफकोर्स डॉट इन। ये एक न्यूज पोर्टल था, जिसमें इंडिया के सभी आईआईटीज


से जुडी इंफॉर्मेशंस मौजूद होती थीं। लेकिन सिक्योरिटी और प्राइवेसी के चलते इस पोर्टल को बंद करना पडा। ऐसा इसलिए क्योंकि अथॉरिटीज नहीं चाहती थीं कि आईआईटी से जुडी इंफॉर्मेशंस कैंपस से बाहर जाएं। इसी के साथ ही दोनों कई बिजनेस प्लान कॉम्पिटीशंस में भी पार्टिसिपेट करते थे लेकिन वहां उन्होंने ऑब्जर्व किया कि लोगों के पास इतने स्टॉन्ग और फीसेजबल आइडियाज ही नहीं थे। खैर, दोनों ने एडवर्टाइजिंग स्पेस में कम करने का मन बनाया। शुभम और अनुभव के पास एक ब्रिलियंट आइडिया था। जिस तरह से न्यूजपेपर्स अपने ओरिजनल प्राइज से बेहद कम प्राइस पर लोगों तक पहुंचते हैं, इसी फॉर्मूले को इन दोनों आईआईटियंस ने नोटबुक्स में आजमाया। एक न्यूजपेपर की कीमत लगभग 25 से 30 रुपए होती है पर फिर भी वो लोगों को नॉमिनल प्राइस पर मिलता है। ऐसा उसमें छपे एडवर्टीजमेंट्स की वजह से पॉसिबल हो पाता है। एडवर्टीजमेंट कॉस्ट ही न्यूजपेपर बिजनेस को प्रॉफिटेबल बनाने का काम करते हैं। यही फंडा शुभम और अनुभव ने नोटबुक्स में यूज किया ताकि बच्चों तक कम प्राइस पर नोटबुक्स पहुंच सकें। एडिस्टर की जो नोटबुक्स बनती हैं, उनमें भी एड स्पेस होता है। यही वजह है कि इनकी वैल्यू मार्केट के कंपैरिजन में 40 परसेंट तक कम होती है। कम वक्त में मिली सक्सेस

एडिस्टर के फाउंडर्स का कहना है कि क्योंकि उनका आइडिया यूनीक था इसलिए उन्होंने फुल फ्लेज्ड काम करना शुरू कर दिया। दोनों ने रुड़की में ही ऐसे लोगों की तलाश की जो उन्हें कम प्राइस पर नोटबुक्स प्रिंट करके दें। रुड़की में प्रिंटिंग कॉस्ट बहुत हाई थी पर दोनों को सहारनपुर में एक पेपर प्रिंटिंग मिल मिल गई जो उनके बजट में काम करने को तैयार थी। साथ ही लोकल डीलर्स से दोनों ने एडवर्टीजमेंट की डील भी क्रैक कर ली और एड के सिंपल फोटोकॉपीज को नोटबुक्स में प्रिंट कर दिया। इससे दो फायदे थे। एक तो लोकल डीलर्स को लंबे वक्त तक एड स्पेस मिल रहा था क्योंकि नोटबुक्स तो ज्यादा वक्त चलती हैं। दूसरा लोगों को भी बाजार से कम दाम पर अच्छी क्वॉलिटी की नोटबुक्स मिल रही थीं। शुभम और अनुभव का कहना है कि नोटबुक्स को फ्री में भी देने के बाद, वे प्रॉफिट अर्न करने में सक्सेसफुल थे। उनके सामने क्या थे चैलेंजेस?

एडिस्टर के फाउंडर्स पर कॉलेज में इकोनॉमिकल एक्टिविटी करने का इल्जाम लगा। हालांकि, उन्होंने बुक्स फ्री में दी थीं इसलिए उनपर एक्शन नहीं लिया गया बस वॉर्निंग दी गई। कुछ ब्रांड एडिस्टर के एडवर्टाइजर भी थे, लेकिन शुभम और अनुभव स्टूडेंट्स थे, इसलिए उन ब्रांड्स ने पार्टनरशिप करने से मना कर दिया। स्टूडेंट्स होने की वजह से उनके पास फंड्स भी नहीं थे जिससे वे अपने आइडिया को आगे ले जाएं। लेकिन वे बी प्लान कॉम्पिटीशंस में पार्टिसिपेट करते थे, उसमें उन्होंने 5000 रुपए जीते और अपने काम में इनवेस्ट किया। इस दौरान उन्हें एक मेंटर भी मिलीं जिन्होंने न सिर्फ उन्हें उनके आइडिया को एग्जिक्यूट करने में हेल्प की बल्कि उनके लिए फंडिंग भी की। किया खुद को ग्रूमकाम कितना भी अच्छे से क्यों न किया जाए, उसमें इंप्रूवमेंट का स्कोप हमेशा बना रहता है। शुभम और अनुभव ने एक एक्सीलरेटर प्रोग्राम ज्वॉइन किया ताकि वे अपने प्रोफेशन को और भी क्लैरिटी के साथ कैरी कर सकें। मेंटरशिप और फाइनेंस की तलाश में दोनों बेंगलुरु और हैदराबाद भी पहुंचे। आज अपने बिजनेस को सक्सेसफुली रन कर रहे हैं।

Posted By: Vandana Sharma