Dehradun: इंटरनेशनल मार्केट में बढ़ती डिमांड और लगातार हो रहे अवैध शिकार के चलते उत्तराखंड में कछुवेक्र टर्टलक्र पर खतरे का बादल मंडरा रहे हैं. यहां पाई जाने वाली कछुवे की प्रजातियां अब विलुप्त होती जा रही हैं. इसी प्रकार अवैध शिकार होते रहा तो आने वाले 10 सालों में यहां कछुवे केवल कागजों के पन्नों पर ही सिमट कर रह जाएंगे. जानकार इसको लेकर बेहद संजीदा हो चले हैं. वे ऐसे अवैध कारोबार पर रोक लगाने के अलावा नदियों में बढ़ रहे पोल्यूशन पर रोक लगाने की वकालत कर रहे हैं. राज्य में सबसे ज्यादा चित्रा इंडिका और एसपीडिरेट्स गंगेटिकस दो कछुवे की स्पेसीज विलुप्ति के कगार पर हैं.


12 स्पेसीज पाई जाती हैं यहां साइंटिस्टों के मुताबिक उत्तराखंड में कछुवे की करीब 12 स्पेसीज पाई जाती थी। ये प्रजातियां सबसे ज्यादा गंगा नदी में पाई जाती थी। ऋषिकेश से लेकर हरिद्वार में इन कछुवे की प्रजातियों का कभी भंडार हुआ करता था, लेकिन अब ये प्रजातियों पर अस्तित्व का संकट गहरा गया है। यकीन न हो तो कछुवे की दो प्रजातियां चित्रा इंडिका और एसपिडिरेट्स गंगेटिकस विलुप्ति के कगार पर हैं। जुलोजिकल सर्वे ऑफ इंडिया देहरादून रिजनल कार्यालय के साइंटिस्ट लगातार इस पर नजर रखे हुए हैं। साइंटिस्टों का दावा है कि पिछले कई सालों से हरिद्वार में कछुवों की प्रजातियों का अवैध शिकार हो रहा है। गंगा में सबसे ज्यादा शिकार


दरअसल, हरिद्वार में कुछ खास तबके के लोग कछुवे को लगातार अवैध पातन कर रहे हैं। बताया गया है कि गंगा में सबसे ज्यादा पानी की कमी के कारण यहां अवैध शिकार करने वाले लोग सक्रिय हो जाते हैं। जिसके बाद वे कछुवों को पकड़ कर ये लोग कारोबारियों को सौंप देते हैं। ये कारोबारी बाया सहारनपुर होते हुए दिल्ली और कोलकत्ता, उसके बाद सिंगापुर के इंटरनेशनल मार्केट तक पहुंचाते हैं। साइंटिस्टों के अनुसार पिछले कुछ सालों में हजारों की तादाद में हरिद्वार से कछुवों को सिंगापुर के इंटरनेशनल मार्केट तक पहुंचाया जा चुका है। जानकारों के अनुसार सिंगापुर तक पहुंचने वाले इन कछुवों का कहीं मास के रुप में यूज होता है तो सिंगापुर इंटरनेशनल मार्केट में इस सेलक्र(कवचक्र) को डैकोरेट के तौर पर बेशकीमती रेट्स में बेचा जाता है। जिनका सबसे ज्यादा यूज फाइव स्टार होटेल्स में होता है।10 सालों में नहीं दिखेंगे कछुवे

जानकार मानते हैं कि इस प्रकार की स्पेसीज के ये कछुवे इको-सिस्टम को बैलेंस करने में बेहद सहायक होते हैं। गंगा नदी में गिरे मांस के टुकड़े या फिर अदजली डेडबॉडी को ये सेवन कर पानी की सफाई करने में हेल्पफुल होते हैं, लेकिन इंडस्ट्रियलाइजेशन और अवैध शिकार के कारण अब इन कछुवे की स्पेसीज पर खतरा मंडरा गया है। इसके अलावा बताया ये भी जा रहा है कि ग्राउंड वाटर की कमी और ग्राउंड वाटर रिचार्ज न हो सकने और एग्रीकल्चर के लिए पानी का सबसे ज्यादा यूज होने के कारण इन्हें पानी की कमी का सामना करना पड़ रहा है। अवैध शिकार धंधे से जुड़े लोग इसके बाद नजदीक से कम पानी होने के कारण इसका शिकार कर देते हैं। जबकि सेंड माइनिंग होने के कारण इनकी हैविटेट में भी चैंजेज हो रहा है। जुलोजिकल सर्वे ऑफ इंडिया की साइंटिस्ट व टर्टल प्रोजेक्ट पर काम कर रही डा। अर्चना बहुगुणा कहती हैं कि ऐसा ही अवैध पातन कछुवों का होता रहा है तो उत्तराखंड कछुवा विहीन स्टेट की कैटेगरीज में शामिल हो जाएगा। जेएडएसआई पिछले 5-6 सालों से इस पर काम कर रहा है। साइंटिस्टों का कहना है कि इस पर रोक लगाना चाहिए। संबंधित डिपार्टमेंट और गवर्नमेंट को पेट्रोलिंग करनी होगी। तभी ऐसे पर्यावरण मित्र को बचाया जा सकता है।

Posted By: Inextlive