शिक्षा बढ़ी है, समझ बढ़ी है। साथ ही लोगों का चीजों को देखने का नजरिया बदला है। फिर भी एक चीज है जिसके लिये लगता है कि शायद कभी खत्म नहीं होगी। जातिवाद और धर्मवाद। सरकारी नौकरियों की चयन व्यवस्था और कुछ प्रतियोगिताओं को छोड दें तो जाति और धर्म के आधार पर बंटी व्यवस्थाएं आज सामाजिक तौर पर जल्द कहीं नजर नहीं आतीं। शायद ही आपने किसी कोचिंग संस्थान में बच्चों को जाति और धर्म के आधार पर अलग-अलग बैठे देखा होगा। आज ठेले पर खड़े होकर उन्हीं प्लेटों में खाना खाने से लेकर टिकट काउंटर पर लगने वाली लाइन तक लगभग सब कुछ समान है। परंतु जब देश के एक गरीब युवा नागरिक को जो नौकरी परीक्षा में 90 प्रतिशत अंक प्राप्त करने पर भी नहीं मिलती। वही नौकरी दूसरे युवा को मात्र 20 या 40 प्रतिशत अंक प्राप्त करने पर बड़ी आसानी से मिल जाती है। ऐसे में मन में द्वेष और ईष्र्या की भावना होना सार्थक है। ज्यादातर पॉलिटिकल एनालिस्ट इस बार के चुनावों को अलग नजरिये से देख रहे हैं। भारत की सोच काफी हद तक बदली है। अब भारत का युवा चौरासी कोसी परिक्रमा और अयोध्या में मंदिर बने या मस्जिद जैसे मुद्दों पर लड़ झगड़कर अपना समय और ऊर्जा नष्ट नहीं करना चाहता। आज का युवा घर से बाहर आता है निर्भया जैसी किसी बेटी के लिये न्याय मांगने को। वह रातभर सर्दियों में ठिठुरने को तैयार होता है। जब बात करप्शन को देश से उखाड़ फेंकने की या कालाधन वापस लाने की हो। वह आपकी बात सुनने को तैयार होता है वह उठकर वहां से चल देता है जब आप भाषणों में जातिवाद का जहर उगलते हैं। कुछ राजनेता ऐसे हैं जो देश की नब्ज नहीं पकड़ पाए। ऐसी पार्टियों को इन चुनावों में मुंह छिपाना पड़ सकता है। साथ ही यह देखना भी रोचक होगा कि कितने प्रतिशत मतदाता इस वर्ष नोटा के विकल्प का प्रयोग करते हैं।

--Punit Parashar

Student

Posted By: Inextlive