केंद्र सरकार पश्चिम बंगाल सरकार और गोरखा जनमुक्ति मोर्चा मिलकर एक स्वायत्तशासी गोरखालैंड क्षेत्रीय प्रशासन के त्रिपक्षीय समझौते पर हस्ताक्षर करने जा रहे हैं.

मगर इससे उस क्षेत्र में पूरी तरह शांति हो जाएगी ये निश्चित तौर पर नहीं कहा जा सकता। कुछ स्थानीय गुटों ने गोरखा जनमुक्ति मोर्चा पर अलग गोरखालैंड राज्य की माँग के साथ समझौता करने का आरोप लगाया है। एक नज़र इस विवाद के पिछले तीन दशकों से उतार-चढ़ाव पर-

गोरखालैंड की माँग ने ज़ोर पकड़ा

पश्चिम बंगाल के उत्तरी हिस्सों को मिलाकर गोरखालैंड बनाने की माँग ने 1980 के दशक में ज़ोर पकड़ा। इसमें मुख्य रूप से दार्जीलिंग की पहाड़ियों के अलावा उससे लगे सिलिगुड़ी के भी क्षेत्र थे। उस समय सुभाष घीसिंग ने गोरखालैंड नेशनल लिबरेशन फ़्रंट या जीएनएलएफ़ नाम के संगठन की स्थापना की।

उनके इस आंदोलन ने हिंसक रूप भी लिया जिसकी वजह से तत्कालीन सरकार ने उस आंदोलन को दबाने की कोशिश की। नतीजा ये हुआ कि उस क्षेत्र में आर्थिक गतिविधियाँ ठप होने लगीं।

आठ साल के बाद पश्चिम बंगाल और केंद्र सरकार दार्जीलिंग की पहाड़ियों के इलाक़े को अर्द्धस्वायत्तशासी क्षेत्र के रूप में मान्यता देने को राज़ी हुई। अगस्त 1988 में दार्जीलिंग गोरखालैंड पहाड़ी परिषद की स्थापना हुई। परिषद के पहले चुनाव में घीसिंग को जीत मिली और वह परिषद के चेयरमैन नियुक्त हुए।

घीसिंग की नियुक्ति के बाद

उनके लिबरेशन फ़्रंट ने तीन बार चुनाव में जीत हासिल की। चौथे चुनाव 2004 में होने थे मगर उस समय चुनाव न कराकर घीसिंग को ही परिषद की कमान दे दी गई। इसके बाद स्थानीय तौर पर कुछ असंतोष उभरा और उसी असंतोष की लहर पर सवार होकर बिमल गुरुंग ने गोरखा जनमुक्ति मोर्चा का गठन किया। उन्हें जनसमर्थन हासिल हुआ जिसे देखते हुए घीसिंग ने 2008 में चेयरमैन के पद से इस्तीफ़ा दे दिया।

अब गुरुंग ने अलग गोरखालैंड राज्य की माँग का झंडा उठाया।

गोरखा जनमुक्ति मोर्चा का प्रभाव

देश के मुख्य विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी ने 2009 के आम चुनाव से पहले तेलंगाना और गोरखालैंड जैसे राज्यों के गठन के समर्थन की घोषणा की। इसके बाद पार्टी के वरिष्ठ नेता जसवंत सिंह को गोरखालैंड जनमुक्ति मोर्चो ने समर्थन दिया और जसवंत सिंह बड़े अंतर से दार्जीलिंग लोकसभा सीट पर चुने गए।

पिछले साल मई में अखिल भारतीय गोरखा लीग के नेता मदन तमांग की हत्या हो गई थी फिर दार्जीलिंग क्षेत्र में बंद भी रहा। अगले कुछ महीनों में वह क्षेत्र काफ़ी अस्थिर रहा। अप्रैल 2011 में पश्चिम बंगाल राज्य विधानसभा चुनाव में गोरखा जनमुक्ति मोर्चा ने दार्जीलिंग पहाड़ी क्षेत्र की तीनों विधानसभा सीटों पर जीत हासिल की जिसने ये संकेत स्पष्ट तौर पर दिया कि उस क्षेत्र में गोरखा जनमुक्ति मोर्चा का व्यापक प्रभाव है।

Posted By: Inextlive