वेंडी डॉनिगर की किताब ‘हिंदुइज्म: ऐन अल्टरनेटिव हिस्ट्री’ की शेष प्रतियाँ उसके प्रकाशक पेंगुइन इंडिया के द्वारा नष्ट कर दी जाएँगी और आगे वह भारत में प्रकाशित नहीं की जाएगी इस ख़बर से बौद्धिकों जगत में भारी रोष छा गया है.


प्रकाशक की आलोचना करते हुए ख़त लिखे जा रहे हैं और अपने लेखक के अधिकार के लिए अंतिम दम तक न लड़ने के लिए उसकी निंदा की जा रही है. पेंगुइन दुनिया के सबसे समृद्ध प्रकाशकों में एक है. इतनी जल्दी उसने हथियार कैसे डाल दिए!इस सात्विक क्रोध से अलग खुद  वेंडी डॉनिगर ने अपने प्रकाशक की मुसीबत समझी है. वे कहती हैं कि असल खलनायक भारत का क़ानून है जिसकी दुहाई देकर ‘शिक्षा बचाओ आंदोलन’ ने इस किताब को हिंदू और राष्ट्रीय भावनाओं को आहत करने वाली बता कर इसके खिलाफ मुक़दमा दायर किया था.यह दीवानी नहीं, फौजदारी धाराओं में किया गया मुक़दमा है और उसके नतीजे शारीरिक तौर पर प्रकाशक और लेखक के लिए ख़तरनाक हो सकते हैं.आसान है मुक़दमा करना
भारत में जितनी आसानी से लेखकों और कलाकारों के खिलाफ़ निचली अदालतों में मुक़दमे दायर किए जा सकते हैं, वह अपने आप में किसी को भयभीत करने के लिए काफ़ी है.साल 2008-09 में राष्ट्रीय शैक्षिक अनुंसधान और प्रशिक्षण परिषद यानी एनसीईआरटी के अधिकारियों और प्रख्यात इतिहासकार सतीश चन्द्र पर मुरादाबाद की एक अदालत में जब इसी तरह का मुक़दमा किया गया और उसे रद्द करने के लिए उच्चतम न्यायालय में अपील की गई तो उसने हस्तक्षेप करने से इनकार कर दिया.


यह दलील भी कि वह किताब अब चल भी नहीं रही, इस बड़ी अदालत को हिला न सकी. अदालत का कहना था कि कभी तो किताब थी और तब अगर कोई जुर्म हुआ था जिसका असर किसी पर पड़ा था तो उसे नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता.संस्था बारीकी से किताबों के छानबीन करती रहती है जिससे ''हिंदू विरोधी और राष्ट्र विरोधी प्रदूषण'' का पता लगाया जा सके. पिछले दिनों इसने हिन्दी की एक पाठ्यपुस्तक में एक कलाकार पर दिए गए पाठ के एक अभ्यास पर ऐतराज़ जताया. छात्रों से उस अभ्यास में कहा गया था कि वे नज़दीकी आर्ट गैलरी में या इंटरनेट पर जा कर एसएच रज़ा या एमएफ हुसैन के चित्रों को खुद देखें.इस पर शिक्षा बचाओ आंदोलन ने कहा कि इंटरनेट के ज़रिए किशोर, हुसैन की हिंदू देवी-देवताओं की अश्लील तस्वीरें देखेंगे जिसका उनके कोमल मस्तिष्क पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ेगा. जब एनसीईआरटी ने उनकी बात मानने से इनकार किया तो उस पर मुक़दमा दायर कर दिया गया.

प्रोफ़ेसर कृष्ण कुमार ने बताया कि निदेशक के रूप में उन्होंने इस संस्था के कम से कम दस मुक़दमे झेले. एक मुक़दमा तो प्रख्यात वैज्ञानिक यशपाल की पात्रता पर सवाल उठाते हुए किया गया था.प्रश्न इसलिए सिर्फ इस संस्था से पार पाने का नहीं है. जो भी इसके निशाने पर है उसे यह मालूम होना चाहिए कि वह एक बड़ी राजनीतिक शक्ति का सामना कर रहा है. वह अनेक राज्यों में सत्तासीन है और केंद्र में भी सत्ता में रही है.क्या हम उसकी राजनीतिक संस्कृति के विरुद्ध किसी बड़े संघर्ष की कल्पना कर सकते हैं? हर लेखक, संस्था या प्रकाशन को इस बात के लिए छोड़ दिया जाता है कि वो अपनी लड़ाई ख़ुद लड़े. हर कुछ दिन पर अदालत जाना, गिरफ़्तारी और शारीरिक हमले के लिए तैयार रहना... इससे बेहतर कई बार एमएफ़ हुसैन का फ़ैसला लगता है जब तकरीबन  सौ मुक़दमों से घबरा कर उन्होंने भारत ही छोड़ दिया था.और भी मामलेपेंगुइन इंडिया और शिक्षा बचाओ आंदोलन के बीच समझौतापेंगुइन इंडिया और शिक्षा बचाओ आंदोलन के बीच हुए समझौते की प्रति.प्रश्न इस व्यापक अनुदार राजनीतिक संस्कृति से संघर्ष का है. इस मामले में हमारा रिकॉर्ड बहुत अच्छा नहीं रहा है.
कोई मसला उठता है, उस वक्त क्रोध भरे कुछ लेख लिखे जाते हैं और कर्तव्य की इतिश्री समझ ली जाती है. अभिव्यक्ति की और अकादमिक स्वतंत्रता लोकतंत्र के लिए अनिवार्य है, यह बात अभी तक हम ठीक से समझ नहीं पाए हैं. पहचान की राजनीति, जो समाज के लोकतंत्रीकरण में सहायक मानी जाती है, इस अधिकार पर हमला करने में किसी भी प्रतिगामी शक्ति की तरह ही बर्ताव करती है.दूसरी परेशानी भारतीय भाषाओं से इस बौद्धिकता के अलगाव से पैदा होती है.क्या इस मसले पर बात करने वाले यह याद कर पाते हैं कि हिंदी कवि मुक्तिबोध की भारतीय संस्कृति पर लिखी पुस्तक को इसी राजनीतिक विचारधारा के दबाव में आज से पचास साल से भी पहले मध्यप्रदेश में हटा लिया गया था?इस घटना ने उन पर इतना गहरा असर डाला कि इसे फासीवादी आहट मान कर उन्होंने ‘अंधरे में’ जैसी भयानक ख़बर वाली कविता लिखी. हरिशंकर परसाई को तो अपने लिखे की कीमत शारीरिक आक्रमण झेल कर चुकानी पड़ी.लेकिन भाषाओं से अंग्रेज़ी में पनपने और प्रतिष्ठा पाने वाली बौद्धिकता की फांक इतनी गहरी है कि अंग्रेज़ी किताबों या लेखकों से भारतीय समाज की आत्मीयता होना मुमकिन नहीं होता. नतीजतन ऐसे लेखक और उनके प्रकाशक अकेलेपन और लाचारी का अनुभव करते हैं.
उनके समर्थन में बयान देने वाले इस संघर्ष को आगे चलाने में समर्थ नहीं. भारतीय समाज में न सही अंतरराष्ट्रीय बौद्धिक समाज में उन्हें एकजुटता मिलती है.इस वजह से भी यह संघर्ष आगे नहीं चलता. यह मान कर कि यह समाज ही इस लायक़ नहीं, हम इसे ‘शिक्षा बचाओ आंदोलन’ जैसी संगठित सांस्कृतिक भाषा के सहारे छोड़ देते हैं.वेंडी डॉनिगर की किताब विदेशों में मिलेगी और  इंटरनेट पर मिल जाएगी. लेकिन इस साधन के केंद्र अमरीका में शिक्षा बचाओ आंदोलन के समर्थक अत्यंत मुखर हैं और वे इंटरनेट पर आक्रामक भी हैं. वहाँ भी अंतिम शरण इस विचारधारा से मिल पाएगी, इसकी निश्चिंतता आख़िरी न होनी चाहिए.

Posted By: Subhesh Sharma