रंगों का यह पर्व प्रकृति से मानव को एकाकार कर तादात्म्य स्थापित कर देता है एवं जीवन को उल्लास के साथ जीने की रीति-नीति का शिक्षण भी देता है। हिंदू संस्कृति में अनावश्यक व हानिकारक वस्तुओं को हटा देने और मिटा देने को बहुत ही महत्वपूर्ण समझा गया है.

भारतवर्ष में जितने भी त्योहार-पर्व मनाए जाते हैं, उन सभी में से होली-मंगलोत्सव विलक्षण है। रस, रंग माधुर्य से सराबोर यह पर्व आंतरिक उल्लास को उभारने वाला एक ऐसा सांस्कृतिक पर्व है, जो कृषि कुसुमित संस्कृति के एक प्रतीक के रूप में भी प्राचीन समय से प्रचलित है। इस त्योहार की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसे देश के हर वर्ग, जाति, धर्म एवं संप्रदाय के लोग बिना किसी भेदभाव के बड़े ही उत्साह व आनंद के साथ मनाते हैं।

रंगों का यह पर्व प्रकृति से मानव को एकाकार कर तादात्म्य स्थापित कर देता है एवं जीवन को उल्लास के साथ जीने की रीति-नीति का शिक्षण भी देता है। हिंदू संस्कृति में अनावश्यक व हानिकारक वस्तुओं को हटा देने और मिटा देने को बहुत ही महत्वपूर्ण समझा गया है और इसी दृष्टिकोण को क्रियात्मक रूप देने के लिए होली का त्यौहार बनाया गया है। अत: होली के त्यौहार का छिपा हुआ संदेश यही है कि हम अपनी भीतरी और बाहरी गंदगी को ढूंढ-ढूंढकर साफ करें और चतुर्मुखी पवित्रता की स्थापना करें एवं मानसिक, सामाजिक, राजनैतिक विकृत विकारों के कंटक जो हमारे रास्ते में बिछे हुए हैं, उन्हें सब मिल-जुलकर ढूंढ-ढूंढकर लाए और उनमें आग लगाकर उत्सव मनाएं।

पौराणिक दृष्टि से यह त्योहार आरंभ कब हुआ, इसके बारे में विभिन्न मत-मतांतर हैं। इस पर्व से अनेक कहानियां भी जुड़ी हुई हैं, जिनमें से सबसे प्रसिद्ध कहानी है भक्त प्रह्लाद की। भविष्य पुराण के अनुसार, ठुंठला नामक राक्षसी ने शिव-पार्वती से यह वरदान तपश्चर्या द्वारा प्राप्त किया था कि वह सुर-असुर नर-नाग किसी से न मारी जा सके एवं जिस बालक को खाना चाहे खा सके। कथा के अनुसार, वरदान देते समय भगवान महादेव ने यह शर्त लगा दी कि वर्ष में केवल होली के एक दिन यह वरदान फलीभूत नहीं होगा और उस दिन जो भी बालक वीभत्स आचरण करते निर्लज्जतापूर्वक फिरते पाए जाएंगे, उन्हें वह नहीं खा सकेगी। कहा जाता है कि उस राक्षसी से बचने के लिए तरह-तरह के वीभत्स स्वांग रचने की परंपरा इस त्योहार से ही बनी।

एक और मान्यता के अनुसार आज ही के दिन के लिए महर्षि वशिष्ठ जी ने सब मनुष्यों के लिए अभयदान मांगा था, ताकि वे नि:शंक होकर इस दिन हंस-खेल सकें, परिहास-मनोविनोद कर सकें। इसी प्रकार से भविष्य पुराण में नारदजी ने राजा युधिष्ठिर को होलिका दहन की कथा सुनाई थी। बुद्धिमान लोग समझ सकते हैं कि केवल लकड़ी और कंडों के दहन से तो सभी अनिष्टों का नाश हो नहीं सकता, न ही कभी ऐसा हुआ है। वास्तव में तो लकड़ी और कंडे, मनुष्य के स्वभाव तथा उसके कर्मों में जो दुख देने वाली आदतें हैं, जो कटुता, शुष्कता, क्रूरता तथा विकार रूपी झाड़-झंखाड़ हैं, उनके प्रतीक हैं और अग्नि 'योगाग्नि’ का प्रतीक है। अत: बुरे संस्कारों, नास्तिकता तथा अभिमान रूप होलिका इत्यादि को परमात्मा रूप दिव्य अग्नि की पाप-दह शक्ति में होम कर देना अथवा योगाग्नि में भस्म कर देना ही 'होलिका-दहन’ है। इससे मनुष्य के मन में हर्ष और आह्लाद होना स्वाभाविक है इसलिए यह हास-परिहास का त्योहार माना गया है।

समझना होगा होली का वास्तविक रहस्य

'अभयदान’ का अर्थ यह है कि हम हिंसा, क्रोध, द्वेष इत्यादि से वशीभूत होकर व्यवहार न करें जिससे हमसे किसी को भय हो। पुनश्च, सोचने की बात है कि लकड़ी और कंडों को जलाने से तो 'पापात्मा राक्षसी’ का नाश नहीं होगा न? क्योंकि 'पापात्मा राक्षसी’ तो हमारे मन में बैठी हुई आसुरी वृत्तियों तथा पापजनक कर्मों की ही सूचिका है। अत: हम ज्ञान-रंग से एक-दूसरे को रंगकर, मन के कुभावों तथा कुसंस्कारों का कचरा दग्ध कर दें- यही होली का वास्तविक रहस्य है।

- राजयोगी ​ब्रह्मा कुमार निकुंज जी

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Posted By: Kartikeya Tiwari