हालात हैं खराब
दो साल पहले फॉरेस्ट डिपार्टमेंट की ओर से सिटी में कराए गए सर्वे के मुताबिक, शहर में करीब 8-10 हजार बंदर हैं। जबकि अधिकारी दबी जुबान यह स्वीकार करते हैं कि बंदरों की संख्या 20 हजार से ऊपर है। इनमें करीब आधी संख्या फीमेल की है। एक्सपट्र्स के मुताबिक, चोट, करंट और बीमारी के चलते काफी बच्चे मर जाते हैं। फिर भी यह ग्रोथ 40 परसेंट होती है। जबकि शहर की पॉपुलेशन ग्रोथ एक डिकेड में 27.92 परसेंट है। मतलब बंदर इंसानों की तुलना में करीब 13 गुना तेजी से बढ़ रहे हैं। यानी मौजूदा समय में शहर में जितने बंदर मौजूद हैं, लगभग उतने ही बंदर हर साल जन्म लेते हैं।
नहीं है कोई प्लान
शहर में आवारा जानवरों के लिए बना एनिमल बर्थ कंट्रोल प्रोग्राम(एबीसी) केवल डॉग्स तक सीमित हो गया है। एक्सपट्र्स के मुताबिक, एक फीमेल मंकी अपने लाइफ टाइम में 13 साल तक बच्चों को जन्म देती है। वह 3-4 साल की उम्र में बच्चों को जन्म देना शुरू कर देती है। इनका प्रेग्नेंसी पीरियड भी 6-8 मंथ का होता है। इसका मतलब है कि एक मादा साल में दो बच्चों को जन्म दे सकती है। इस तरह से शहर में करीब दस हजार मादा बंदर हैं।
बढ़ रही बंदरों की फौज
इससे साफ है कि हर साल बंदरों की पॉपुलेशन करीब 18 से 20 हजार तक बंदर बढ़ रही है। एक्सपट्र्स के मुताबिक, चोट, करंट और बीमारी के चलते काफी बच्चे मर जाते हैं। फिर भी यह ग्रोथ 40 परसेंट होती है। जबकि शहर की पॉपुलेशन ग्रोथ एक डिकेड में 27.92 परसेंट है। मतलब बंदर इंसानों की तुलना में करीब 13 गुना तेजी से बढ़ रहे हैं।

पहुंची भीड़
फ्राइडे को सुबह नौ बजे से डिस्ट्रिक्ट हॉस्पिटल में एंटी रेबीज लगवाने के लिए पेशेंट्स की पर्चा बनवाने के लिए लम्बी लाइन लगना शुरू हो गई थी। पेशेंट्स की भीड़ इतनी ज्यादा थी कि सभी को इंजेक्शन के लिए लंबा इंतजार करना पड़ा। एक दिन में 312 लोगों को एंटी रेबीज का डोज दिया गया। इसमें से 212 बंदर काटने के और 100 पेशेंट्स कुत्ता काटने के पहुंचे।
पहुंचे यहां से
 डिस्ट्रिक्ट हॉस्पिटल में एंटी-रेबीज के लिए पहुंचने वालों में मदिया कटरा, मोती कटरा, न्यू आगरा, राजा मंडी, गोकुलपुरा और दर्जन भर अन्य इलाकों के पेशेंट्स पहुंचे। इसके अलावा कई रूरल एरिया के पेशेंट्स भी एंटी-रेबीज लगवाने पहुंचे। इसमें 79 बच्चे बंदर के काटने का शिकार हुए हैं.पिछले दो महीनों में एंटी रेबीज लगवाने वाले पेशेंट्स की संख्या में काफी इजाफा हुआ है। जहां पहले 180 से 200 पेशेंट एंटी रेबीज के लिए पहुंच रहे थे, वही संख्या अब 300 के डाटा को क्रॉस कर गई है। हर दिन डिस्ट्रिक्ट हॉस्पिटल में 350 पेशेंट तक पहुंच रहे हैं। इसमें कुत्ते से ज्यादा बंदर के काटने के पेशेंट पहुंच रहे हैं।

सब कुछ गफलत में
सिटी में बंदरों के हमले में एक के बाद एक कई लोगों की जान जा चुकी है। कई लोग घायल हुए हैं। टाइम टू टाइम पब्लिक की ओर से बंदरों से निजात दिलाने के लिए बाकायदा डिमांड भी उठी। लेकिन, इन सबके बावजूद हालात नहीं सुधरे। लापरवाही का आलम देखिए कि एडमिनिस्ट्रेशन भी बंदरों की संख्या का ठीक से पता तक नहीं लगा सका। दो साल पहले फॉरेस्ट डिपार्टमेंट ने बंदरों की संख्या समर सीजन-2011 में 7,928 बताई, जबकि नगर निगम इनकी संख्या करीब 25 हजार से भी अधिक होने का दावा कर चुका है।
आखिर किस पर है जिम्मेदारी
फॉरेस्ट ऑफिसर का कहना है कि सिटी एरियाज के डेंजर बंदरों को चिन्हित करने और उन्हें पकडऩे का काम नगर निगम के पास था। उन एरियाज के सर्वे कराने के लिए नगर निगम को लिखा गया था। लेकिन, नगर निगम ने बंदरों की काउंटिंग का काम फॉरेस्ट डिपार्टमेंट के ऊपर डाल दिया।
डीएफओ ने पीछे हटे
तकरीबन डेढ़ साल पहले आगरा के बंदरों को छोडऩे के लिए जंगलों को भी चिन्हित कर लिया गया था। फॉरेस्ट डिपार्टमेंट के सब डिवीजन ऑफिसर यज्ञेश्वर प्रसाद शुक्ल के अनुसार, नगर निगम की रिक्वेस्ट के बाद पीलीभीत के डीएफओ ने महोप और देवरिया रेंज के जंगल में बंदर छोडऩे के लिए एनओसी दी थी। लेकिन, बाद में डीएफओ ने हाथ खींच लिया। नतीजतन मामला वहीं रुक गया।
शासन में लटका मामला
नगर निगम के वेटनरी ऑफिसर डॉ। बीएस वर्मा ने बताया कि काफी मशक्कत के बाद नगर निगम ने नौ करोड़ रुपए का प्रोजेक्ट नगर विकास विभाग को भेजा था। यह प्रोजेक्ट मई, 2011 से अब तक शासन में ही लटका पड़ा है। बकौल डॉ। वर्मा, इस प्रोजेक्ट को शासन ने हरी झंडी दिखा दी तो आगरा के वाशिंदों को बंदरों से मुक्ति मिल जाएगी। उन्होंने बताया कि इस प्रोजेक्ट के अंतर्गत बंदरों के पुनर्वास का पूरा ध्यान रखा जाएगा। इसके लिए हॉस्पिटल बनाया जाएगा। एक वेटनरी डॉक्टर होगा। इनके हैबिटेड की पूरी व्यवस्था की जाएगी।

यहां हैं बंदरों की भरमार
-एसएन मेडिकल कॉलेज
-मोती कटरा
-बेलनगंज
-घटिया
-पीरकल्याणी
-मंडी सईद खां
-कचहरी घाट
-दरेसी
-जीवनी मंडी
-गधापाड़ा
-काला महल
-छीपीटोला
-इंदिरापुरम
-नाई की मंडी
-कालिंदी विहार आदि

हो चुका प्रयास
समाजसेवी मुकेश जैन की मानें तो तकरीबन छह-सात साल पहले बंदरों के आतंक से मुक्ति के लिए काम किया जा चुका है। उस टाइम सामाजिक सहभागिता के आधार पर नगर निगम से बंदरों को पकड़वाया गया था। निगम की गाडिय़ां बंदरों को भरकर कीठम के जंगल में छोड़ आई थीं। कुछ दिनों बाद बंदर वापस आगरा आ गए। नतीजा सिटी को तो बंदरों से मुक्ति मिली नहीं, उल्टा कीठम एरिया में फैले बंदर आसपास के एरिया के लोगों को परेशान करने लगे। फॉरेस्ट डिपार्टमेंट में सब डिवीजनल ऑफिसर यज्ञेश्वर प्रसाद शुक्ला भी बताते हैं कि बंदर एक ऐसा जानवर है, वह छोडऩे के कुछ टाइम बाद ही रास्ते की पहचान कर वापस उसी स्थान पर आ जाता है। कुछ बंदर तो इतने चालाक होते हैं कि छोडऩे वाली गाड़ी के साथ ही साथ शहर की ओर वापस हो लेते हैं।



वर्जन
आगरा के बंदर काफी आक्रामक हो गए हैंं। इसीलिए इन्हें पकड़े जाना जरूरी है। प्रोजेक्ट तैयार हो गया है। सिन्पोसिस ऑफ प्रोजेक्ट शासन को भेजी जा चुकी है।
डॉ। बीएस वर्मा, वेटनरी ऑफिसर, नगर निगम आगरा

Report by- Aparna sharma acharya/ Megh singh yadav