कहानी :
1962 इंडोचीन वॉर के बाद भारतीय पलटन की चीन से भारत का हिस्सा बचाने की जद्दोजहद है फिल्म का मेन प्लाट।

समीक्षा :
देशभक्ति से ओत प्रोत फ़िल्म्स दत्ता साहब की खासियत है इसीलिए वॉर का माहौल बहुत सटीक क्रिएट होता है, आप एक टाइम पर फील करने लगते हैं कि आप देश के एक बहुत सुंदर बॉर्डर पर हैं और यहां तनाव है। फिर फिल्म में सब लोग जोर जोर से बेहद स्टीरियोटाइप होकर जिंदाबाद मुर्दाबाद के नारे लगाने लगते हैं। और पूरी फिल्म में कान से खून निकाल देने वाला लाउड बैकग्राउंड स्कोर, हाल से बाहर आते वक्त कान में सीटी सी बज रही थी। ऊपर से सीन और शॉट को वेल कंपोज करने के चक्कर में ये वॉर वॉर जैसी नहीं लगती बल्कि ड्रिल जैसी लगती है।

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क्या अच्छा है :
ऐसा नहीं है कि फिल्म में कुछ भी देखने वाला नहीं है, फिल्म के कुछ वॉर सीक्वेंस काफी अच्छे से किये गए हैं। और भी अच्छी बात ये है कि कहानी एक ऐसे वॉरफ्रंट की है जिसके बारे में काफी हिंदुस्तानी जनता को पता भी नहीं है। अगर नास्टैल्जिया के लिए भी जाएं तो फिल्म देखने जाया जा सकता है, कुछ कुछ सीन बॉर्डर ओर LOC की याद जरूर दिलाएंगे।

 

अदाकारी :
जो भी चीनी किरदारों की कास्टिंग है वो काफी हास्यास्पद है, ऊपर से वो डायलॉग ऐसे बोलते हैं। जैसे बस हंसी ही छूट जाए, उनको फिल्म में सिरियसली लेना इम्पॉसिबल है। अर्जुन रामपाल, जैकी श्राफ और सोनू सूद काफी कोशिश करते हैं कि फिल्म ढर्रे पर बनी रहे और काफी हद तक वो कामयाब भी होते है। फिल्म ठीक ठाक होती अगर इतनी लाउड और मेलोड्रामा से भरी नहीं होती। ऊपर से फिल्म के ट्रीटमेंट में कुछ नयापन नहीं है, फिल्म बॉर्डर का खराब बना हुआ प्रेकुएल लगती है। एक अनकही कहानी देखने के लिये ही एक बार देखी जा सकती है पलटन।

रेटिंग : 2.5 STAR

Review by : Yohaann Bhaargava
Twitter : yohaannn

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