जब किसी को कुछ देने की बात आती है, तो लोगों के साथ यह आम समस्या है, कि वे हमेशा यह जानना चाहते हैं कि वे सही इंसान को दे रहे हैं या नहीं। अगर वे बगीचे को भी पानी देते हैं, तो वे यह पक्का कर लेना चाहते हैं कि वे सिर्फ फल देने वाले पेड़ों को ही पानी दें, न कि घास-फूस को। अगर वे किसी को पैसा देते हैं, तो वे किसी ऐसे इंसान को ही देना चाहेंगे, जो उसके सबसे ज्यादा योग्य हो, न कि उसे जो उसके काबिल न हो। तो 'जब मैं किसी को पैसा देता हूं, तो क्या वह इंसान सचमुचनेक है, क्या वह सिर्फ एक भिखारी है? क्या वह मुझे बेवकूफ बना कर ठग रहा है?' इस तरह के कई सवाल आपके मन में उठते हैं। आज जब सुबह सूरज उगा, तो उसने पूरी तरह से अपनी किरणें, घास-फूस को, फूल देने वाले पेड़ों और फल देने वाले पेड़ों, अच्छे और बुरे लोगों, अपराधियों और संतों, सबको बराबर से दीं। छोटी-मोटी चीजें जो

आप देना चाहते हैं, उसके लिए आप इतना हिसाब-किताब क्यों लगाते हैं कि जिन्दगी ही गडबड़ा जाए? अगर आपके पास देने को कुछ है, तो बस दे दीजिए। वह इंसान इसके काबिल है या नहीं, यह सोचना आपका काम नहीं।

अगर आप नहीं देना चाहते तो मत दीजिए, वह भी ठीक है। यह जरूरी नहीं कि हर समय बस आप देते रहें। अगर आपके मन में देने की भावना उठती है, तो बस दे दीजिए। हो सकता है कि वह आदमी चोर हो, यह आपकी समस्या नहीं है। वह व्यक्ति एक महान संत भी हो सकता है, यह भी आपकी समस्या नहीं है। आप देना चाहते हैं, तो बस खुशी-खुशी दे डालिए। आप इतना हिसाब-किताब इसलिए करते हैं, क्योंकि आप यह जानना चाहते हैं कि आप जो दे रहे हैं, उससे आपको पर्याप्त अच्छे नंबर मिलने वाले हैं या नहीं? इससे आपको स्वर्ग में सीट मिलेगी या नहीं? यह भावना बहुत ही बुरा कर्म है। यह जरूरी नहीं कि जो भी आप देते हैं, उसका हिसाब रखें। जो भी देने की इच्छा हो, बस प्रसन्नता से दे दीजिए, नहीं तो कृपा करके कुछ मत दीजिए। आप चाहें तो खुद को आसपास के लोगों और जीवन से अलग कर सकते हैं, तब आप बस यह देखें कि आप स्वयं के साथ क्या कर सकते हैं। ऐसा करना भी ठीक होगा। लेकिन आप में ऐसी कुछ भावनाएं हैं, कि आप देना चाहते हैं, आप एक पत्थर की तरह कठोर नहीं बनना चाहते, आप नहीं चाहते कि कोई आपको कंजूस या दूसरों की परवाह न करने वाला कहे।

अब अगर कोई अंधा आदमी आकर भीख मांगता है, तो लोग उसकी पलकें उठा कर देखना चाहते हैं कि वह सचमुच अंधा है या नहीं। आपको यह पता लगाने की जरूरत नहीं है। अगर कोई इंसान अपने आपको इतना गिरा लेना चाहता है कि उसे आपसे एक रुपया लेने के लिए अंधा बनने का नाटक करना पड़े, तो वह उस एक रुपये के काबिल है, वह इतना दयनीय है कि आपको उसकी पलकें उठा कर यह देखने की जरूरत नहीं कि वह सचमुच अंधा है या नहीं। तो आप अगर किसी इंसान को कुछ देना चाहते हैं तो यह जरूरी नहीं कि वह किसी मायने में असमर्थ हो। देना आपसे सरोकार रखताहै, किसी दूसरे से नहीं। आपको तो खुश होना चाहिए कि कोई लेने वाला है। यही तो भारत की निराली बात है। अगर आपके पास कुछ भी बचा हुआ खाना है, तो आप सड़क से किसी को बुलाकर उस खाने को उसको दे सकते हैं। दुनिया भर में और कहीं भी आप ऐसा नहीं कर सकते। यह तो आपकी खुशकिस्मती है कि जब आप कुछ देना चाहते हैं, तो कोई लेने वाला है।

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किसी को कुछ देने से आपको क्या मिलेगा, न सोचें

आप इस बात से परेशान न हों कि कोई पवित्र है या नहीं। खासतौर से अगर कोई नेक इंसान नहीं है तो उसे देने की ज्यादा जरूरत है, है कि नहीं? अगर कोई साधु है, अगर कोई एक खास अवस्था तक पहुंच चुका है, तो आप उन्हें कुछ दें या न दें, इससे उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता। अगर कोई दयनीय हालत में है, तो वह आपसे कुछ हासिल करने के काबिल है। आप खुशी-खुशी उसे जितना देना चाहें, दे सकते हैं। ऐसा करना आपकी मजबूरी नहीं है और न ही आप स्वर्ग जाएंगे क्योंकि आपने कुछ दिया है। बात केवल इतनी है कि आप किसी से जुड़ जाते हैं, इसलिए आप देते हैं। कोई इसका हिसाब नहीं रखता कि आपने किसको कितने रुपये दिए, सिवाय आपके और यह अच्छा होगा कि आप भी इस बात का हिसाब न रखें।

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